मुंबई का अंतक: ख़ौफ़ उसका हथियार था, और मौत उसका अंजाम।

 

मुंबई का अंतक

१९८० के दशक का मुंबई। आशा कॉलोनी की गरीबी से निकलकर वीर प्रताप सिंह उर्फ़ ‘वीरा’ अपराध की अंधेरी दुनिया में कदम रखता है। करण ‘कोबरा’ शर्मा जैसे घातक साथी के साथ मिलकर वह जग्गा उस्ताद के बिखरे गिरोह पर कब्ज़ा करता है और जल्द ही दुबई स्थित डॉन सुल्तान मिर्ज़ा के एस-सिंडिकेट का प्रमुख शूटर बन जाता है। ख़ौफ़ उसका हथियार है, और महत्वाकांक्षा उसकी उड़ान।

लेकिन जब एसीपी विक्रम राठौर जैसा दृढ़ निश्चयी पुलिस अधिकारी उसके पीछे पड़ जाता है, और सिंडिकेट के भीतर ही विश्वासघात का जाल बुना जाने लगता है, तो क्या वीरा अपनी सल्तनत बचा पाएगा? "मुंबई का महाकाल" महत्वाकांक्षा, शक्ति, क्रूरता और विश्वासघात की एक रोमांचक और दिल दहला देने वाली गाथा है, जो आपको मुंबई के अंडरवर्ल्ड के उस भयावह दौर में ले जाएगी जहाँ हर मोड़ पर मौत इंतज़ार कर रही थी। क्या वीर का उदय उसके पतन की ही शुरुआत थी?






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Sample Chapters : 


अध्याय १: आशा कॉलोनी का धुंधलका

सन उन्नीस सौ अस्सी के दशक का मध्यकाल। बंबई, सपनों का शहर, अपनी चौड़ी छाती पर असंख्य बस्तियों का बोझ उठाए, निरंतर भागता हुआ, हाँफता हुआ। उन्हीं में से एक थी आशा कॉलोनी – नाम के सर्वथा विपरीत, जहाँ आशा की किरणें धुंधलकाई रहती थीं और निराशा की कालिख दीवारों पर अधिक स्पष्ट उभरती थी। टीन और टाट की अस्थायी छतों के नीचे, एक-दूसरे से सटी, बेतरतीब उग आई झुग्गी-झोपड़ियों का एक अंतहीन सिलसिला था यह, जहाँ संकरी, कीचड़ भरी गलियाँ मकड़जाल की भाँति फैली हुई थीं। हवा में सीलन, कोयले के धुएँ, और कहीं दूर से आते समुद्र की खारी गंध के साथ-साथ अनगिनत घरों से उठते मसालों और मानवीय अस्तित्व के मिले-जुले गंध तैरते रहते। यहीं, इसी आशा कॉलोनी के एक ऐसे ही अंधकारमय खड़ंजे पर, जहाँ सूर्य का प्रकाश भी पहुँचने से कतराता था, सत्रह वर्षीय वीर प्रताप सिंह की दुनिया सिमटी हुई थी।

वीर की आँखें, जो अभी पूरी तरह से किशोरावस्था की चंचलता से मुक्त नहीं हुई थीं, अक्सर अपने परिवेश का मौन निरीक्षण करती रहतीं। वह देखता था उन थके हुए चेहरों को जो सुबह कारखानों और मिलों की ओर एक अनाम भीड़ का हिस्सा बनकर निकलते थे और शाम को उसी भीड़ में और भी टूटे हुए लौटते थे। वह सुनता था उन अनगिनत बच्चों के रुदन को जो भूख और बीमारी से बिलखते थे, उन स्त्रियों की दबी हुई सिसकियों को जो हर रात अपने शराबी पतियों की मार सहती थीं, और उन युवकों की कुंठित चीखों को जो बेरोजगारी और अभाव के दलदल में धँसते जा रहे थे। बंबई की प्रसिद्ध कपड़ा मिलों का सुनहरा दौर अब अस्त हो रहा था। एक के बाद एक मिलें बंद हो रही थीं, और १९८२ की ऐतिहासिक कपड़ा मिल हड़ताल ने तो जैसे लाखों पेटों पर लात मार दी थी। आशा कॉलोनी और उसके जैसी बस्तियों में इस आर्थिक भूचाल का प्रभाव सबसे अधिक गहरा था। हर दूसरे घर में कोई न कोई ऐसा व्यक्ति था जिसकी नौकरी चली गई थी, जिसके सपने कारखानों की चिमनियों से उठते धुएँ के साथ ही उड़ गए थे।

वीर का अपना घर भी इसी त्रासदी से अछूता नहीं था। उसके पिता, महिपाल सिंह, कभी एक कपड़ा मिल के गर्वीले श्रमिक हुआ करते थे। उनकी चौड़ी छाती और मजबूत भुजाएँ इस बात का प्रमाण थीं कि उन्होंने कभी कठिन परिश्रम से मुँह नहीं मोड़ा। परंतु अब, मिल बंदी के बाद, वे घर पर ही रहते थे, एक टूटी हुई खाट पर, मौन और उदास। उनकी आँखों की ज्योति क्षीण हो गई थी और चेहरे पर समय से पहले ही झुर्रियाँ घिर आई थीं। कभी-कभार उठती उनकी खाँसी पूरे घर में एक मनहूस शांति बिखेर जाती थी। माँ, पार्वती सिंह, जैसे अपने नाम के अनुरूप ही धैर्य और सहनशीलता की प्रतिमूर्ति थीं। वह सुबह से शाम तक अथक परिश्रम करतीं – कभी आस-पड़ोस के घरों में चौका-बर्तन, कभी सिलाई-कढ़ाई, तो कभी बाजार में छोटी-मोटी चीजें बेचकर किसी तरह गृहस्थी की गाड़ी को खींचने का असफल प्रयास करतीं। उनके माथे पर चिंता की लकीरें स्थायी हो चुकी थीं, और उनकी प्रार्थनाओं में अब अपने बच्चों के भविष्य, विशेषकर वीर के भविष्य, के लिए एक गहरी व्याकुलता घुलमिल गई थी। वीर के दो छोटे भाई-बहन भी थे, जिनकी क्षीण काया और कुपोषित चेहरे पार्वती के संघर्ष की जीती-जागती तस्वीर थे।

घर का वातावरण अक्सर तनावपूर्ण रहता। सीमित आमदनी और बढ़ती जरूरतों के बीच कलह होना स्वाभाविक था। महिपाल सिंह अपनी बेबसी पर कुढ़ते, तो पार्वती उन्हें सांत्वना देने की कोशिश करतीं। वीर यह सब देखता, सुनता और उसके किशोर मन में एक अज्ञात विद्रोह सुलगने लगता। उसे यह गरीबी, यह लाचारी, यह घुटन भरा माहौल स्वीकार्य नहीं था। वह अपने पिता की तरह चुपचाप परिस्थितियों के आगे घुटने टेकने को तैयार नहीं था। उसकी रगों में एक बेचैन लहू दौड़ता था, जो उसे कुछ कर गुजरने के लिए उकसाता रहता, भले ही वह "कुछ" क्या हो, यह उसे स्वयं भी स्पष्ट नहीं था।

उस दिन भी सुबह कुछ ऐसी ही थी। सूरज की पहली किरणें अभी आशा कॉलोनी की सँकरी गलियों तक पहुँची भी नहीं थीं कि पार्वती मंदिर से लौट आई थीं। उनके हाथ में पूजा की छोटी सी थाली थी, और होंठों पर कोई अस्पष्ट सा मंत्र। वीर अभी तक अपनी टूटी-फूटी चारपाई पर ही पड़ा था, आँखें छत की ओर लगी थीं, जहाँ से पिछली रात की बारिश का पानी अब भी टपक रहा था। "उठ जा वीर, कितना सोएगा?" पार्वती ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "देख, सूरज कहाँ चढ़ आया।" वीर ने अनिच्छा से आँखें खोलीं। माँ के चेहरे पर वही चिर-परिचित थकान और चिंता थी। "क्या है माँ?" उसने कर्कश स्वर में पूछा। "कुछ नहीं," पार्वती ने गहरी सांस ली, "जा, हाथ-मुँह धो ले। मैंने थोड़ा दलिया बनाया है।" दलिया! वीर के मुँह का स्वाद बिगड़ गया। वही रोज का दलिया या रूखी-सूखी रोटी। उसे याद नहीं कि उसने पिछली बार कब पेट भरकर अपनी पसंद का खाना खाया था। "मुझे भूख नहीं है," उसने कहा और दूसरी ओर करवट ले ली। पार्वती ने कुछ क्षण उसे असहाय दृष्टि से देखा, फिर बिना कुछ कहे रसोई की ओर बढ़ गईं। महिपाल सिंह की धीमी खाँसी की आवाज़ कमरे में गूंज उठी। वीर ने अपने कान पर तकिया रख लिया। वह इन आवाज़ों से, इस माहौल से दूर भाग जाना चाहता था।

कुछ देर बाद वह उठा और बिना किसी से कुछ कहे घर से बाहर निकल गया। आशा कॉलोनी की गलियाँ अब जाग चुकी थीं। कहीं नल पर पानी के लिए झगड़ा हो रहा था, तो कहीं बच्चे धूल-मिट्टी में खेल रहे थे। हवा में विभिन्न प्रकार की गंधें थीं – नालियों की दुर्गंध, किसी घर से आती मछली तलने की महक, और अगरबत्तियों का पवित्र धुआँ। वीर इन सबसे बेपरवाह, अपने विचारों में खोया हुआ आगे बढ़ता रहा। उसकी निगाहें अक्सर उन युवकों पर टिक जाती थीं जो नुक्कड़ पर खड़े होकर सिगरेट के कश लगाते थे, ऊँची आवाज़ में बातें करते थे, और जिनकी आँखों में एक अजीब सी बेखौफी और अहंकार होता था। ये वे लड़के थे जो किसी छोटे-मोटे गिरोह से जुड़े थे, या अपनी "दादागिरी" से इलाके में थोड़ा-बहुत दबदबा रखते थे। वीर उन्हें ईर्ष्या और आकर्षण के मिले-जुले भाव से देखता था। उनके पास पैसे होते थे, वे अच्छे कपड़े पहनते थे (कम से कम वीर की तुलना में), और सबसे बड़ी बात, लोग उनसे डरते थे।

आज भी नुक्कड़ पर वही जमघट था। चंदू लंगड़ा, जो इलाके का एक छोटा-मोटा बदमाश था, अपने दो-तीन साथियों के साथ खड़ा था। वीर को देखते ही चंदू ने आवाज़ लगाई, "ऐ वीरे, इधर आ!" वीर ठिठका। चंदू उसे कभी भाव नहीं देता था। आज क्या बात थी? वह धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ा। "क्या है चंदू?" चंदू ने अपनी जेब से एक बीड़ी निकाली, उसे सुलगाया और धुएँ का एक लंबा कश खींचते हुए कहा, "सुना है आजकल बड़ा उड़ने लगा है तू? कल उस पान वाले को धमका रहा था?" वीर को याद आया। कल उसने पान वाले से मुफ्त में सिगरेट मांगी थी, और मना करने पर थोड़ी गरमा-गरमी हो गई थी। "उससे तुझे क्या?" वीर ने अकड़कर कहा, यद्यपि उसका हृदय थोड़ा तेज़ धड़क रहा था। चंदू हँसा, एक भद्दी हँसी। "औकात में रह वीरे। यह इलाका चंदू लंगड़े का है। यहाँ पत्ता भी उसकी मर्ज़ी से हिलता है।" वीर की मुट्ठियाँ भिंच गईं। अपमान की आग उसके भीतर धधक उठी। वह सत्रह साल का था, शरीर में ताकत थी, और सबसे बढ़कर, उसके अंदर एक लावा खौल रहा था जो बाहर निकलने को आतुर था। "तेरा इलाका?" वीर के स्वर में चुनौती थी, "यह किसी के बाप का इलाका नहीं है।" चंदू का चेहरा तमतमा गया। "ज़बान संभाल के बात कर लड़के!" उसने अपनी बीड़ी ज़मीन पर फेंकी और उसे जूते से मसल दिया। उसके साथी भी वीर की ओर बढ़ने लगे। "जो करना है कर ले," वीर ने अपनी छाती फुलाते हुए कहा। वह जानता था कि वह अकेला है और चंदू के साथ उसके साथी भी हैं, लेकिन पीछे हटना अब उसके लिए नामुमकिन था।

अगले ही पल, चंदू ने वीर पर झपट्टा मारा। वीर भी तैयार था। एक जोरदार घूंसा चंदू के जबड़े पर पड़ा, और वह लड़खड़ा गया। उसके साथियों ने वीर को घेर लिया। एक अव्यवस्थित, क्रूर लड़ाई शुरू हो गई। घूंसे चले, लातें चलीं, गालियाँ दी गईं। वीर अकेला था, पर उसमें जैसे किसी जंगली जानवर की ताकत आ गई थी। उसने चंदू के एक साथी को उठाकर ज़मीन पर पटक दिया, दूसरे को कोहनी मारी। चंदू, जो अब तक संभल चुका था, एक पत्थर उठाकर वीर के सिर पर मारने ही वाला था कि वीर ने फुर्ती से झुककर उसका हाथ पकड़ लिया और पत्थर छीनकर उसी के पैर पर दे मारा। चंदू दर्द से चीख उठा। गली में शोर सुनकर कुछ लोग इकट्ठा हो गए, लेकिन कोई बीच-बचाव करने नहीं आया। यह आशा कॉलोनी का रोज़ का नाटक था। कुछ ही मिनटों में, चंदू और उसके साथी पस्त हो चुके थे। चंदू लंगड़ाते हुए और गालियाँ बकता हुआ अपने साथियों के साथ भाग खड़ा हुआ। वीर अकेला खड़ा था, उसकी साँसें तेज़ चल रही थीं, कमीज़ फटी हुई थी, और होंठ के कोने से खून रिस रहा था। लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी – विजय की चमक, अपनी ताकत को पहचानने की चमक। आज उसने पहली बार खुलकर किसी का सामना किया था, और जीता था। भीड़ में से किसी ने कहा, "अरे, यह तो महिपाल का लड़का है! बड़ा शेर निकला!" किसी और ने कहा, "चंदू की हेकड़ी निकाल दी आज इसने।"

वीर ने किसी की ओर ध्यान नहीं दिया। उसने अपने होंठ से रिसते खून को पोंछा और धीरे-धीरे अपने घर की ओर चल पड़ा। उसके शरीर में दर्द हो रहा था, लेकिन उसका मन एक अजीब से संतोष और उत्तेजना से भरा हुआ था। आज उसने आशा कॉलोनी के धुंधलके में अपनी उपस्थिति का पहला सशक्त अहसास कराया था। अपराध जगत की ओर यह उसका अनकहा, अनचाहा, लेकिन शायद अवश्यंभावी पहला कदम था। घर पहुँचकर जब पार्वती ने उसकी हालत देखी, तो वह सिहर उठीं। उनके प्रश्नों का वीर ने कोई सीधा उत्तर नहीं दिया, बस इतना कहा, "अब कोई हमें आँख नहीं दिखाएगा, माँ।" पार्वती की आँखों में चिंता और गहरी हो गई, क्योंकि वह अपने बेटे की आँखों में वह चमक देख रही थीं जो उन्हें किसी अनिष्ट की ओर ले जाती हुई प्रतीत हो रही थी। वीर के लिए, हालांकि, यह एक नई सुबह का संकेत था, एक ऐसी सुबह जहाँ वह अपनी नियति स्वयं लिखने का भ्रम पाल रहा था, इस बात से अनजान कि नियति की कलम अक्सर किसी और के हाथ में होती है। आशा कॉलोनी का धुंधलका अभी छँटा नहीं था, बल्कि वीर के जीवन में यह और भी गहरा होने वाला था।

 

अध्याय २: आईटीआई और सपने

चंदू लंगड़े और उसके साथियों के साथ हुई उस अप्रत्याशित झड़प के बाद वीर प्रताप सिंह की आशा कॉलोनी में एक नई, यद्यपि अनचाही, पहचान बन गई थी। कुछ उसे भय मिश्रित सम्मान से देखते, तो कुछ आशंकित रहते कि यह लड़का अब किस ओर जाएगा। किंतु वीर के लिए वह घटना एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुई थी। उसने पहली बार अपनी शारीरिक शक्ति और साहस का प्रत्यक्ष अनुभव किया था, और उससे भी अधिक, उसने लोगों की आँखों में अपने लिए एक नया भाव देखा था – भय का, और कुछ हद तक, स्वीकार्यता का। यह भाव उसे किसी मादक द्रव्य की भाँति अपनी ओर खींच रहा था। घर पर, हालांकि, माहौल बिल्कुल भिन्न था। पार्वती सिंह ने जब वीर की फटी कमीज और चेहरे पर खरोंचों के निशान देखे थे, तो उनका हृदय किसी अनिष्ट की आशंका से काँप उठा था। उनके लाखों बार पूछने पर भी वीर ने घटना का पूरा विवरण नहीं दिया था, बस रूखेपन से कह दिया था, "कुछ नहीं माँ, चंदू लंगड़े से थोड़ी कहा-सुनी हो गई थी। अब वह दोबारा हम लोगों की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखेगा।"

पार्वती के लिए यह आश्वासन किसी सांत्वना से अधिक चिंता का कारण था। वह अपने बेटे की रगों में दौड़ती बेचैनी और उसकी आँखों में पलती विद्रोह की ज्वाला को पहचानती थीं। वह जानती थीं कि आशा कॉलोनी का यह दूषित वातावरण और यहाँ की निराशाजनक परिस्थितियाँ किसी भी युवक को पथभ्रष्ट करने के लिए पर्याप्त थीं। महिपाल सिंह की निरंतर बिगड़ती स्वास्थ्य की अवस्था और घर की आर्थिक तंगी ने उनकी चिंताओं को और भी गहरा कर दिया था। वह रात-दिन इसी उधेड़बुन में रहतीं कि किस प्रकार अपने बच्चों, विशेषकर वीर, को इस दलदल से बाहर निकालें। उन्हें लगता था कि यदि वीर किसी हुनर में लग जाए, कोई काम सीख ले, तो शायद उसका ध्यान इन फालतू की बातों से हटकर अपने भविष्य निर्माण की ओर लग जाएगा।

इसी विचार ने उन्हें औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (आईटीआई) की ओर प्रेरित किया। उन्होंने आस-पड़ोस से, और जो थोड़े-बहुत पढ़े-लिखे लोग उनकी जान-पहचान के थे, उनसे आईटीआई के बारे में जानकारी एकत्र की। उन्हें पता चला कि वहाँ विभिन्न प्रकार के तकनीकी प्रशिक्षण दिए जाते हैं, जिन्हें पूरा करने के बाद सरकारी या निजी कारखानों में नौकरी मिलने की संभावना रहती है। यह विचार पार्वती को आशा की एक क्षीण किरण सा प्रतीत हुआ। उन्होंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वह वीर का दाखिला आईटीआई में अवश्य कराएंगी।

यह कार्य इतना सरल नहीं था। दाखिले के लिए कुछ शुल्क लगना था, और घर की आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि दो समय का भोजन जुटाना भी कठिन था। परंतु पार्वती ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपनी बची-खुची जमा-पूँजी, जो उन्होंने किसी बुरे वक्त के लिए बचा रखी थी, और कुछ पड़ोसियों से उधार लेकर किसी प्रकार शुल्क की व्यवस्था की। अब सबसे बड़ी चुनौती थी वीर को इसके लिए तैयार करना।

एक शाम, जब वीर बाहर से आवारागर्दी करके लौटा, तो पार्वती ने उसे अपने पास बिठाया। उनके चेहरे पर एक अजीब सी गंभीरता और याचना का भाव था। "वीर बेटा," उन्होंने धीमे स्वर में कहा, "मैं चाहती हूँ कि तू आईटीआई में दाखिला ले ले।" वीर ने आश्चर्य से माँ की ओर देखा। "आईटीआई? वह क्या होता है माँ?" पार्वती ने उसे समझाया, "वहाँ तुझे काम सिखाया जाएगा बेटा। फिटर का, या वेल्डर का... कुछ भी सीख लेगा तो कहीं अच्छी नौकरी मिल जाएगी। तेरी अपनी जिंदगी बन जाएगी।" वीर सुनकर चुप रहा। उसके मन में कोई उत्साह नहीं जागा। नौकरी, कारखाना, वही घिसी-पिटी जिंदगी जिससे वह दूर भागना चाहता था। "मुझे यह सब नहीं करना माँ," उसने कुछ देर बाद कहा, "इन सबमें कुछ नहीं रखा।" पार्वती की आँखें भर आईं। "बेटा, ऐसे मत कह। देख, तेरे बापू की क्या हालत है। घर में एक पैसा नहीं है। मैं कब तक अकेले सब संभालूँगी? तू कुछ हुनर सीख लेगा तो हमारा भी सहारा हो जाएगा, और तेरा भविष्य भी..." उनकी आवाज़ रुंध गई।

माँ के आँसू और उनकी विवशता वीर को अंदर तक झकझोर गई। वह अपनी माँ से बहुत स्नेह करता था, यद्यपि व्यक्त नहीं कर पाता था। वह जानता था कि माँ जो कुछ भी कह रही हैं, वह उसी के भले के लिए है। उसके मन में एक द्वंद्व छिड़ गया। एक ओर सड़क की वह उन्मुक्त, रोमांचक (जैसा उसे लगता था) दुनिया थी, जहाँ उसने अभी-अभी अपनी ताकत का स्वाद चखा था, और दूसरी ओर माँ की उम्मीदें, परिवार की जिम्मेदारियाँ और एक सुरक्षित, पारंपरिक भविष्य का रास्ता था। "ठीक है माँ," उसने भारी मन से कहा, "जैसा तुम कहोगी, वैसा ही करूँगा।" पार्वती की आँखों में आशा की एक चमक तैर गई। उन्होंने तुरंत वीर के माथे को चूम लिया, "मेरा राजा बेटा! देखना, एक दिन तू बहुत बड़ा आदमी बनेगा।"

अगले कुछ दिनों की भागदौड़ के बाद वीर का दाखिला शहर के एक छोर पर स्थित आईटीआई में फिटर ट्रेड में हो गया। पार्वती ने उसे अपनी सबसे अच्छी कमीज़ पहनाकर और माथे पर दही का टीका लगाकर पहले दिन संस्थान भेजा। वीर भारी मन से बस में सवार होकर आईटीआई पहुँचा। संस्थान का परिसर काफी बड़ा था, लेकिन उसमें किसी प्रकार का आकर्षण नहीं था। पुरानी, बेरंग इमारतें, मशीनों की खड़खड़ाहट, और तेल-ग्रीस की मिली-जुली गंध। उसके सहपाठी भी अधिकतर उसी के जैसे आर्थिक पृष्ठभूमि के लड़के थे, जिनकी आँखों में भविष्य के सपने कम और वर्तमान की विवशता अधिक झलकती थी।

कक्षाएँ शुरू हुईं। वीर का मन पढ़ाई में बिल्कुल नहीं लगता था। मास्टरजी जब ब्लैकबोर्ड पर औजारों के चित्र बनाकर उनके कल-पुर्जों के बारे में समझाते, तो उसका ध्यान कहीं और भटक जाता। उसे खिड़की के बाहर उड़ते हुए पंछी अधिक आकर्षक लगते, या फिर वर्कशॉप में मशीनों पर काम करते हुए अन्य छात्रों की ऊर्जायुक्त गतिविधियाँ। उसे थ्योरी की बजाय प्रैक्टिकल में कुछ रुचि थी। जब उसे विभिन्न धातुओं को घिसने, काटने या जोड़ने का काम मिलता, तो वह उसे पूरी तन्मयता से करता। उसके हाथों में सफाई थी, और वह औजारों का प्रयोग कुशलता से सीख रहा था। मास्टरजी भी उसकी इस खूबी को पहचान गए थे और कभी-कभी उसकी प्रशंसा भी कर देते थे।

परंतु यह रुचि भी क्षणिक होती। जैसे ही वह आईटीआई के गेट से बाहर निकलता, उसका मन आशा कॉलोनी की गलियों की ओर भागता। चंदू लंगड़े वाली घटना के बाद से उसका रुतबा बढ़ गया था। इलाके के लड़के अब उसे सम्मान की दृष्टि से देखते थे। कुछ तो उसके साथ जुड़ना भी चाहते थे। वीर को यह सब अच्छा लगता था। आईटीआई की नीरस दुनिया के मुकाबले यह दुनिया अधिक जीवंत और रोमांचक लगती थी। यहाँ हर दिन एक नई चुनौती थी, एक नया अवसर था अपनी ताकत और हिम्मत दिखाने का।

वह अक्सर आईटीआई से सीधे घर न जाकर आशा कॉलोनी में अपने नए "दोस्तों" के साथ घूमने निकल जाता। कभी वे किसी चाय की टपरी पर बैठकर गपशप करते, कभी ताश खेलते, तो कभी यूँ ही गलियों में मटरगश्ती करते। वीर अब धीरे-धीरे इस दुनिया के रंग में रंगने लगा था। उसकी भाषा में सड़क की कठोरता और अक्खड़पन आने लगा था। उसके चलने-फिरने के ढंग में एक नई अकड़ आ गई थी।

पार्वती अपने बेटे में आ रहे इन बदलावों को देख रही थीं और उनका मन चिंतित होता जा रहा था। वीर अब पहले की तरह उनसे खुलकर बातें नहीं करता था। वह अक्सर देर रात घर लौटता और पूछने पर कोई टालमटोल वाला जवाब दे देता। कभी-कभी उसकी जेब से कुछ पैसे भी निकलते, जिनके बारे में वह संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं दे पाता था। पार्वती को डर था कि जिस रास्ते से वह वीर को बचाना चाहती हैं, वीर उसी रास्ते की ओर और तेजी से खिंचता जा रहा है। "बेटा, आजकल तू पढ़ाई पर ध्यान दे रहा है न?" वह अक्सर पूछतीं। "हाँ माँ, सब ठीक है," वीर लापरवाही से जवाब देता। "कोई परेशानी तो नहीं है न तुझे आईटीआई में?" "नहीं तो," वह कहता और बाहर जाने के लिए उद्यत हो जाता।

महिपाल सिंह की हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी। उनकी दवाइयों का खर्च बढ़ता जा रहा था, और घर में आमदनी का कोई स्थायी स्रोत नहीं था। पार्वती की अकेली कमाई से घर चलाना अब लगभग असंभव होता जा रहा था। वीर यह सब देखता था, और उसके मन में एक अजीब सी छटपटाहट होती थी। वह जल्द से जल्द बहुत सारा पैसा कमाना चाहता था, ताकि वह अपनी माँ के कष्टों को दूर कर सके, अपने पिता का अच्छा इलाज करा सके, और इस गरीबी भरी जिंदगी से छुटकारा पा सके। आईटीआई की पढ़ाई और उसके बाद मिलने वाली नौकरी उसे बहुत धीमा और अपर्याप्त मार्ग प्रतीत होता था। उसे लगता था कि इस रास्ते पर चलकर वह कभी भी अपने सपनों को पूरा नहीं कर पाएगा।

एक दिन आईटीआई में, जब मास्टरजी लेथ मशीन के विभिन्न भागों के बारे में समझा रहे थे, वीर का ध्यान उनकी बातों पर बिल्कुल नहीं था। वह खिड़की से बाहर देख रहा था, जहाँ कुछ लड़के आपस में किसी बात पर उलझ रहे थे। उसके मन में विचार आया, "यह क्या बकवास है! इन मशीनों और पुर्जों को रटकर क्या होगा? महीने के अंत में वही चंद रुपये! क्या इसी के लिए माँ ने इतने कष्ट उठाए हैं?" उसी क्षण जैसे उसके अंदर कुछ टूट गया। एक निर्णय, जो अभी तक उसके अवचेतन में दबा हुआ था, अब सतह पर आ गया। "नहीं," उसने मन ही मन कहा, "मैं यह सब नहीं करूँगा। मुझे कुछ और करना है, कुछ बड़ा, कुछ ऐसा जिससे मैं जल्द से जल्द इस नरक से बाहर निकल सकूँ।"

उस दिन जब वह आईटीआई से निकला, तो उसके कदम घर की ओर नहीं, बल्कि आशा कॉलोनी के उस नुक्कड़ की ओर बढ़े जहाँ उसके नए "दोस्त" उसका इंतज़ार कर रहे थे। उसके चेहरे पर एक नई कठोरता और निश्चय का भाव था। उसने आईटीआई की किताबों और औजारों के बारे में सोचना लगभग बंद कर दिया था। उसका मन अब पूरी तरह से सड़क की दुनिया, उसकी चुनौतियों और उसके संभावित पुरस्कारों की ओर केंद्रित हो चुका था। पार्वती सिंह की उम्मीदों का दीया अभी भी टिमटिमा रहा था, लेकिन वीर के मन में जल रही महत्वाकांक्षा की ज्वाला उस दीये की लौ को निगल जाने के लिए तैयार हो रही थी। आईटीआई के सपने अब धुंधले पड़ने लगे थे, और आशा कॉलोनी की गलियों का आकर्षण और भी प्रगाढ़ होता जा रहा था। वीर प्रताप सिंह अनजाने ही एक ऐसे दोराहे पर आ खड़ा हुआ था, जहाँ से एक रास्ता गुमनामी और संघर्ष की ओर जाता था, और दूसरा अपराध और विनाश की ओर। और उसने, शायद परिस्थितियों से मजबूर होकर, या शायद अपनी अंदरूनी प्रकृति के वशीभूत होकर, दूसरे रास्ते की ओर अपने कदम बढ़ाने शुरू कर दिए थे। उसके आईटीआई के दिन अब गिनती के रह गए थे, और सड़क पर उसकी "दादागिरी" का सूरज अब तेजी से उगने वाला था।

शाम को जब वह घर लौटा, तो पार्वती ने देखा कि आज वीर कुछ बदला-बदला सा है। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी, और उसके व्यवहार में एक नई निश्चिंतता। "कैसा रहा आज का दिन आईटीआई में, बेटा?" पार्वती ने स्नेह से पूछा। वीर ने उनकी ओर देखा, एक क्षण के लिए उसकी आँखों में कोई और ही भाव कौंधा, फिर उसने अपने चेहरे पर लापरवाही का मुखौटा चढ़ाते हुए कहा, "ठीक ही था माँ, रोज़ जैसा।" लेकिन पार्वती जानती थीं कि यह "रोज़ जैसा" नहीं था। कुछ तो बदला था, उनके बेटे के अंदर, और यह बदलाव उन्हें किसी अज्ञात भय से भर रहा था। वह रात भर सो नहीं पाईं, बस अपने बेटे के उज्ज्वल भविष्य के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती रहीं, इस बात से अनजान कि उनका बेटा अपने भविष्य की पटकथा अब स्वयं, एक बिल्कुल भिन्न स्याही से लिखने का मानस बना चुका था।


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