वंश का विधान : जहाँ इतिहास हत्यारा बन जाता है

 

वंश का विधान

जब इतिहास हत्यारा बन जाता है, तो अतीत ही एकमात्र हथियार होता है।

मुंबई में, एक के बाद एक, शहर के सबसे प्रभावशाली स्तंभों को गिराया जा रहा है। एक शक्तिशाली बिल्डर, एक विवादास्पद फिल्म निर्देशक, एक भ्रष्ट राजनेता। उनकी मौतें सामान्य नहीं हैं। वे एक भयानक कला हैं, जिन्हें एक भूली हुई पांडुलिपि, 'काल-संहिता', के क्रूर श्लोकों के अनुसार अंजाम दिया गया है। मुंबई पुलिस के पास कोई सुराग नहीं है, सिवाय एक छोटे, प्राचीन भोजपत्र के टुकड़े के, जिस पर एक ऐसी लिपि है जिसे कोई पढ़ नहीं सकता।

उनकी हताशा उन्हें विक्रम सिंह राठौड़ के दरवाज़े तक ले जाती है। विक्रम एक प्रतिभाशाली इतिहासकार है जो गुमनामी में जी रहा है। उसे 'वंश' नामक एक प्राचीन, हत्यारे पंथ पर अपने कट्टरपंथी सिद्धांतों के लिए अकादमिक समुदाय से बहिष्कृत कर दिया गया था। अब, वही सिद्धांत जो उसकी बर्बादी का कारण बना, शहर को बचाने की एकमात्र कुंजी हो सकता है।

इंस्पेक्टर अंजलि शर्मा के साथ मिलकर, विक्रम इस मामले में गहराई से उतरता है, और जल्द ही उसे एहसास होता है कि वह केवल एक सलाहकार नहीं है। वह इस खेल का एक मोहरा है। हर सुराग, हर प्रतीक, उसे उसके अपने अतीत की ओर वापस ले जाता है। उसे पता चलता है कि 'वंश' केवल एक प्राचीन कहानी नहीं है, बल्कि एक जीवित, सांस लेता हुआ षड्यंत्र है जिसकी जड़ें उसके अपने परिवार के इतिहास में गहराई तक समाई हुई हैं। उसके पिता, एक सम्मानित उद्योगपति, इस खूनी पहेली के केंद्र में हैं।

अब विक्रम को समय के खिलाफ दौड़ना है। उसे एक ऐसे दुश्मन को उजागर करना है जिसका कोई चेहरा नहीं है, एक ऐसे पंथ को रोकना है जिसकी पहुँच सत्ता के उच्चतम स्तरों तक है, और एक ऐसे अनुष्ठान को विफल करना है जो हमेशा के लिए दुनिया को बदल सकता है। उसे अपने पिता के पापों का सामना करना होगा और यह तय करना होगा कि वह उस विरासत को स्वीकार करेगा या उसे नष्ट कर देगा जिसने उसे बनाया है। वंश का विधान लिखा जा चुका है। क्या विक्रम अपना भाग्य फिर से लिख पाएगा?

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Sample Chapters  - 

अध्याय १: पहला श्लोक

मुंबई की जुलाई की उमस भरी रात अपनी पूरी नमी के साथ शहर पर काबिज़ थी। हवा इतनी भारी थी कि साँस लेना भी एक मेहनत का काम लग रहा था। धारावी के औद्योगिक इलाके की भूलभुलैया जैसी गलियों से गुज़रती हुई पुलिस की जीप की हेडलाइटें, बारिश के पानी से भरे गड्डों में काँपती हुई परछाइयाँ बना रही थीं। गाड़ी एक पुराने, जंग लगे गेट के सामने आकर रुकी, जहाँ पहले से ही कुछ पुलिसकर्मी और मीडिया की गाड़ियों की भीड़ जमा थी।

इंस्पेक्टर अंजलि शर्मा ने दरवाज़ा खोला और बाहर कदम रखा। वर्दी की चुस्त बनावट और हवा में घुली सड़ी हुई मछली और गीले कचरे की तेज़ गंध का एक अजीब सा संगम था। उसने अपनी नज़रों को चारों ओर घुमाया। चमकते हुए कैमरे, उत्साहित रिपोर्टर और जिज्ञासु स्थानीय लोगों की भीड़ को रोकने की कोशिश करते हुए हवलदार। यह एक रोज़ का तमाशा था, एक ऐसा तमाशा जिसकी उसे अब आदत हो गई थी, लेकिन जिसे वह कभी पसंद नहीं कर पाई।

"मैडम, अंदर," एक युवा कांस्टेबल ने रास्ता बनाते हुए कहा।

अंजलि ने सिर हिलाया और उस विशाल, जीर्ण-शीर्ण गोदाम की ओर बढ़ गई। दरवाज़े पर लगी पीली पुलिस टेप हवा में धीरे-धीरे लहरा रही थी, जैसे किसी आने वाले अपशकुन का संकेत दे रही हो। अंदर का दृश्य बाहर की अराजकता के बिल्कुल विपरीत था। एक भयानक, गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था, जिसे केवल फोरेंसिक टीम के सदस्यों की दबी हुई फुसफुसाहट और उनके कैमरों के फ्लैश की हल्की सी क्लिक की आवाज़ ही तोड़ रही थी।

गोदाम के बीचों-बीच, धूल और मकड़ी के जालों के साम्राज्य के केंद्र में, वह पड़ा था। धनंजय राणे। मुंबई के सबसे बड़े और सबसे विवादास्पद बिल्डरों में से एक। लेकिन अब वह कोई शक्तिशाली व्यक्ति नहीं था। वह बस एक शव था, एक ऐसा शव जिसे किसी भयानक कलाकृति की तरह प्रदर्शित किया गया था।

अंजलि धीरे-धीरे आगे बढ़ी, उसकी अनुभवी आँखें हर छोटी-बड़ी चीज़ को दर्ज कर रही थीं। उसने अपने दस्ताने पहने और शव के पास घुटनों के बल बैठ गई। उसने अपने जीवन में कई हत्याएं देखी थीं, क्रूरता के ऐसे रूप देखे थे जो आम इंसान की कल्पना से परे थे। लेकिन यह कुछ और था। इसमें गुस्सा या आवेश नहीं था। इसमें एक ठंडी, गणनात्मक सटीकता थी।

धनंजय राणे के शरीर को एक अजीब, लगभग असंभव योगासन जैसी मुद्रा में मोड़ा गया था। उसके हाथ और पैर एक जटिल तरीके से गुंथे हुए थे, जो किसी प्राचीन नृत्य की मुद्रा जैसा लग रहा था। उसके चेहरे पर कोई दर्द या संघर्ष का भाव नहीं था। उसकी आँखें खुली हुई थीं, और उनमें एक अजीब सी शांति थी, जैसे उसने अपनी नियति को स्वीकार कर लिया हो।

"कोई संघर्ष के निशान नहीं हैं, मैडम," हवलदार मोरे ने पीछे से दबी आवाज़ में कहा। "ऐसा लगता है जैसे उन्होंने खुद ही यह सब होने दिया हो।"

अंजलि ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी नज़र राणे के सीने पर टिकी थी। वहाँ, उसकी महंगी सिल्क की कमीज़ को फाड़कर, उसकी त्वचा पर एक प्रतीक उकेरा गया था। यह किसी नुकीली चीज़ से सटीकता से बनाया गया था, जिसकी रेखाएं एकदम सीधी और गहरी थीं। प्रतीक जटिल था, जिसमें त्रिकोण और वृत्त एक-दूसरे को काट रहे थे, जो किसी भूली हुई सभ्यता के ज्यामितीय डिज़ाइन जैसा लग रहा था।

"डॉक्टर इलयास?" अंजलि ने बिना नज़रें हटाए पूछा।

फोरेंसिक विभाग के प्रमुख, डॉक्टर इलयास, एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति थे जिनकी आँखों में हमेशा एक हल्की सी उदासी रहती थी। उन्होंने अपने बीस साल के करियर में अनगिनत भयावह अपराध स्थल देखे थे। लेकिन आज उनकी अनुभवी आँखें भी धोखा खा रही थीं।

"यह...अविश्वसनीय है, इंस्पेक्टर," उन्होंने अपनी मोटी ऐनक को नाक पर ऊपर खिसकाते हुए कहा। "जिसने भी यह किया है, वह कोई कसाई नहीं था। वह एक कलाकार था, एक सर्जन। कट इतने साफ़ हैं कि...जैसे लेज़र से बनाए गए हों। और सबसे अजीब बात," उन्होंने चारों ओर इशारा किया, "खून। खून का एक कतरा भी नहीं है।"

अंजलि ने चारों ओर देखा। डॉक्टर इलयास सही थे। आमतौर पर ऐसे हिंसक अपराध स्थल खून से सने होते हैं। लेकिन यहाँ, शव के आसपास का कंक्रीट का फर्श भयानक रूप से साफ़ था। ऐसा लग रहा था जैसे हत्यारे ने अपना काम पूरा करने के बाद सब कुछ साफ़ कर दिया हो। यह असंभव था।

"मौत का कारण?" अंजलि ने पूछा।

"पहली नज़र में कहना मुश्किल है," डॉक्टर इलयास ने स्वीकार किया। "शरीर पर कोई बाहरी चोट नहीं है, सिवाय इस प्रतीक के। कोई गोली का निशान नहीं, कोई चाकू का घाव नहीं। ऐसा लगता है जैसे...जैसे उनकी आत्मा को शरीर से निकाल लिया गया हो।"

अंजलि खड़ी हो गई। यह सब किसी पहेली जैसा लग रहा था, एक ऐसी पहेली जिसका कोई सिरा नहीं था। धनंजय राणे के कई दुश्मन थे। अन्य बिल्डर, अंडरवर्ल्ड के लोग, नाराज़ राजनेता। सूची लंबी थी। लेकिन उनमें से कोई भी इस तरह से काम नहीं करता था। यह शैली किसी की नहीं थी। यह कुछ नया था, कुछ भयावह रूप से प्राचीन।

उसने अपनी टीम को निर्देश देना शुरू किया। "मुझे राणे के पिछले ४८ घंटों की पूरी जानकारी चाहिए। वह किससे मिला, उसने किससे बात की, सब कुछ। उसके परिवार, उसके सहयोगियों, उसके दुश्मनों, हर किसी से पूछताछ करो। मुझे इस गोदाम के मालिक का पता लगाओ। यहाँ के हर इंच की तलाशी लो।"

घंटे बीतते गए। गोदाम की दमघोंटू हवा में जांच की धीमी गति घुल गई थी। हर कोई मेहनत कर रहा था, लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लग रहा था। कोई फिंगरप्रिंट नहीं। कोई डीएनए नहीं। कोई हथियार नहीं। हत्यारा जैसे हवा में आया और हवा में ही गायब हो गया।

अंजलि को अपनी नसों में निराशा का एक ठंडा एहसास दौड़ता हुआ महसूस हुआ। यह उसका पहला बड़ा केस था जिसमें वह अकेली नेतृत्व कर रही थी। कमिश्नर ने उस पर भरोसा दिखाया था, और वह उन्हें निराश नहीं करना चाहती थी। लेकिन यह मामला उसकी समझ से परे था। यह किसी तर्क या तर्कशास्त्र का पालन नहीं कर रहा था।

"मैडम," डॉक्टर इलयास ने उसे अपनी सोच से बाहर निकाला। उनकी आवाज़ में एक अजीब सी उत्तेजना थी। "आपको यह देखना चाहिए।"

अंजलि उनके पास गई, जहाँ उन्होंने शव को एक सफेद चादर पर रखा था। डॉक्टर इलयास ने एक चिमटी पकड़ी हुई थी और वह बहुत सावधानी से राणे के मुँह के अंदर कुछ देख रहे थे।

"जब हम शरीर को हिला रहे थे, तो मुझे उसके गले में कुछ महसूस हुआ," उन्होंने धीरे से कहा।

उन्होंने चिमटी को धीरे से अंदर डाला और एक छोटी, कसकर लपेटी हुई वस्तु को बाहर निकाला। यह भूरे रंग की थी और बहुत पुरानी लग रही थी।

"यह क्या है?" अंजलि ने पूछा, आगे झुकते हुए।

"यह भोजपत्र जैसा दिखता है," डॉक्टर इलयास ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा। "बिर्च की छाल। प्राचीन भारत में लिखने के लिए इसका इस्तेमाल होता था।"

उन्होंने उस छोटी सी नली को बहुत सावधानी से एक काँच की ट्रे पर रखा। उसकी सतह पर स्याही के बेहोश निशान थे, जो एक ऐसी लिपि में लिखे गए थे जिसे अंजलि ने पहले कभी नहीं देखा था। अक्षर कोणीय थे, तेज और किसी प्रार्थना या श्राप की तरह लग रहे थे।

अंजलि उस छोटी सी वस्तु को घूरती रही। यह एक छोटा सा टुकड़ा था, शायद एक इंच से भी कम। लेकिन उसे लगा जैसे उसने एक विशाल, अंधेरे कमरे का दरवाज़ा खोल दिया हो। यह हत्यारा केवल एक संदेश नहीं छोड़ रहा था; वह एक कहानी सुना रहा था, एक ऐसी कहानी जो खून और प्राचीन स्याही से लिखी गई थी।

यह एक बिल्डर की साधारण हत्या नहीं थी। यह एक अनुष्ठान था। एक बलिदान।

और यह केवल पहला श्लोक था।

अंजलि ने अपने जबड़े को भींच लिया। रात अभी लंबी होने वाली थी। और उसे एक भयानक एहसास हो रहा था कि यह केवल शुरुआत थी। शहर पर एक साया मंडरा रहा था, एक ऐसा साया जो सदियों पुराना था और जिसकी भूख अभी मिटी नहीं थी। उसका काम उस साये को पहचानना था, इससे पहले कि वह अपना अगला शिकार चुने। उसे पता नहीं था कि यह खोज उसे कितनी गहरी और अंधेरी जगहों पर ले जाएगी, एक ऐसी दुनिया में जहाँ तर्क विफल हो जाता है और केवल प्राचीन प्रतीक और भूले हुए श्लोक ही मायने रखते हैं।


अध्याय २: अपमानित नबी

पुणे की सुबह मुंबई से बिल्कुल अलग थी। यहाँ की हवा में एक ठहराव था, एक अकादमिक शांति जो मुंबई की निरंतर भागदौड़ से कोसों दूर थी। इसी शांति के बीच, एक पुरानी इमारत की तीसरी मंजिल पर स्थित एक छोटे से अपार्टमेंट में, विक्रम सिंह राठौड़ अपनी दुनिया में खोया हुआ था। उसकी दुनिया किताबों से बनी थी। किताबें दीवारों पर बनी अलमारियों में करीने से सजी नहीं थीं, बल्कि वे हर जगह थीं। फर्श पर ढेर लगे हुए थे, मेज पर उनका साम्राज्य था, और कुर्सी पर भी उन्होंने अपनी जगह बना ली थी। हवा में पुरानी कागज़ की मनमोहक गंध और रात की बची हुई ठंडी कॉफ़ी की हल्की सी कड़वाहट घुली हुई थी।

यह विक्रम का किला था, और उसका निर्वासन भी।

धूप की एक अकेली किरण धूल भरे कमरे में प्रवेश कर रही थी, और उस रोशनी में धूल के कण किसी रहस्यमयी आकाशगंगा के तारों की तरह नाच रहे थे। विक्रम अपनी पुरानी लकड़ी की मेज पर झुका हुआ था। उसकी आँखों के सामने एक मध्ययुगीन पांडुलिपि का डिजिटल संस्करण खुला था। वह एक विदेशी विश्वविद्यालय के लिए इसका अनुवाद कर रहा था। यह एक नीरस काम था, लेकिन इससे उसका किराया निकल जाता था। उसकी उंगलियाँ कीबोर्ड पर यंत्रवत चल रही थीं, लेकिन उसका दिमाग कहीं और था।

उसकी आँखें तेज थीं, आज भी उनमें ज्ञान की वही चमक थी जिसने कभी उसे अपने क्षेत्र का सबसे होनहार युवा इतिहासकार बनाया था। लेकिन उस चमक के चारों ओर अब हार और थकान का एक घेरा था। उसके बाल कुछ ज़्यादा ही लंबे थे, और उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी, जो उसकी अपनी ही दुनिया से उदासीनता का प्रतीक थी। कभी जो चेहरा आत्मविश्वास से दमकता था, आज उस पर दुनिया की कठोरता की लकीरें खिंच गई थीं।

पाँच साल हो गए थे। पाँच साल, जब से उसका करियर एक झटके में समाप्त हो गया था। उसे आज भी वह दिन किसी बुरे सपने की तरह याद था। दिल्ली विश्वविद्यालय का खचाखच भरा ऑडिटोरियम। देश भर से आए हुए प्रतिष्ठित इतिहासकार। और वह, मंच पर खड़ा, अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण शोध पत्र को प्रस्तुत करते हुए।

उसका विषय था "वंश: प्राचीन भारत में एक प्रति-सांस्कृतिक आंदोलन का उदय और पतन।" उसने अपनी पूरी ऊर्जा, अपना पूरा जुनून उस शोध में झोंक दिया था। उसने अस्पष्ट ग्रंथों, लोक कथाओं और पुरातात्विक संकेतों के आधार पर एक सिद्धांत बनाया था। एक ऐसे गुप्त पंथ का सिद्धांत जो मानता था कि वे ब्रह्मांडीय संतुलन बनाए रखने के लिए समाज के "अशुद्ध" तत्वों को खत्म करने के लिए ज़िम्मेदार थे। उसने उनके अनुष्ठानों, उनके विश्वासों और उनके क्रूर न्याय के तरीकों का वर्णन किया था।

शुरुआत में सब ठीक था। दर्शकों में एक उत्सुकता थी। लेकिन जैसे-जैसे वह अपनी बात की गहराई में उतरता गया, माहौल बदलने लगा। सामने की पंक्ति में बैठे वरिष्ठ प्रोफेसरों के चेहरों पर व्यंग्यात्मक मुस्कानें तैरने लगीं। फुसफुसाहट शुरू हो गई। उसके अपने मार्गदर्शक, डॉक्टर वर्मा, जिन्होंने शुरू में उसे प्रोत्साहित किया था, अब असहज होकर अपनी कुर्सी पर हिल रहे थे।

प्रस्तुति के अंत में, सवालों की बौछार शुरू हो गई। लेकिन वे सवाल ज्ञान की प्यास के लिए नहीं थे। वे हमले थे।

"श्रीमान राठौड़," एक सफ़ेद बालों वाले इतिहासकार ने अपनी भारी आवाज़ में कहा, "यह सब बहुत दिलचस्प है। एक अच्छी कहानी है। लेकिन आपके इस 'वंश' पंथ के अस्तित्व का कोई ठोस सबूत कहाँ है? कोई शिलालेख? कोई शाही फरमान? आपके स्रोत लोक कथाएँ और संदिग्ध पांडुलिपियाँ हैं।"

विक्रम ने जवाब देने की कोशिश की थी। "सर, इतिहास हमेशा पत्थरों पर नहीं लिखा जाता। कभी-कभी वह मौन में, फुसफुसाहट में, और उन कहानियों में छिपा होता है जिन्हें मुख्यधारा का समाज दबा देता है।"

"बकवास!" एक और आवाज़ गूंजी थी। "यह इतिहास नहीं, यह कल्पना है। आप तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर एक सनसनीखेज कहानी बना रहे हैं।"

उस दिन उसे अपमानित किया गया था। उसे एक कल्पनावादी, एक अकादमिक धोखेबाज़ करार दिया गया था। उसके शोध को "अवैज्ञानिक" और "अनुमान पर आधारित" कहकर खारिज कर दिया गया था। विश्वविद्यालय ने उससे दूरी बना ली। पत्रिकाओं ने उसके लेख छापने से इनकार कर दिया। कुछ ही महीनों में, उसका फलता-फूलता करियर धूल में मिल गया। वह दिल्ली से पुणे चला आया, उस दुनिया से दूर जिसने उसे अपनाया और फिर उतनी ही बेरहमी से बाहर फेंक दिया।

अब उसका जीवन इन नीरस अनुवादों के इर्द-गिर्द घूमता था। वह अपने ज्ञान का उपयोग कर रहा था, लेकिन अपनी आत्मा का नहीं। वह एक ऐसा नबी था जिसे उसके अपने ही लोगों ने अपमानित किया था, और अब वह गुमनामी के रेगिस्तान में भटक रहा था।

तभी फोन बजा।

उसकी तेज़, कर्कश ध्वनि ने कमरे के शांत सन्नाटे को चीर दिया। विक्रम चौंका। उसे फोन कॉल की उम्मीद नहीं थी। उसके कुछ गिने-चुने ग्राहक थे, और वे सभी ईमेल से संवाद करते थे। उसने फोन को बजने दिया, उम्मीद की कि यह बंद हो जाएगा। लेकिन वह बजता रहा।

एक गहरी साँस छोड़कर, उसने फोन उठाया। "हाँ?" उसकी आवाज़ में एक रूखापन था।

दूसरी तरफ एक पल की खामोशी थी, फिर एक महिला की स्पष्ट और सधी हुई आवाज़ आई। "क्या मैं श्री विक्रम सिंह राठौड़ से बात कर रही हूँ?"

"बोल रहा हूँ," विक्रम ने कहा, उसकी आवाज़ में कोई उत्साह नहीं था। "कौन?"

"मेरा नाम इंस्पेक्टर अंजलि शर्मा है। मैं मुंबई पुलिस से बात कर रही हूँ।"

मुंबई पुलिस। विक्रम के दिमाग में एक घंटी बजी। उसने अपनी भौंहें सिकोड़ीं। पुलिस उससे क्या चाहती थी? क्या उसके किसी पुराने दुश्मन ने कोई झूठी शिकायत दर्ज करा दी थी?

"सुनिए, इंस्पेक्टर," उसने थके हुए लहजे में कहा, "मुझे नहीं पता कि यह किस बारे में है, लेकिन मेरे पास पुलिस के लिए समय नहीं है।"

"श्रीमान राठौड़," अंजलि की आवाज़ में अब एक हल्की सी सख्ती थी, "यह कोई अनुरोध नहीं है। हमें आपकी विशेषज्ञता की आवश्यकता है।"

"मेरी विशेषज्ञता?" विक्रम हँसा, एक कड़वी, खोखली हँसी। "मुझे लगा कि अकादमिक दुनिया ने सर्वसम्मति से यह फैसला कर लिया है कि मेरे पास कोई 'विशेषज्ञता' नहीं है।"

दूसरी तरफ फिर से एक पल की खामोशी थी। अंजलि शायद इस तरह के प्रतिरोध की आदी नहीं थी। "देखिए, मुझे आपके अतीत या आपके विवादों में कोई दिलचस्पी नहीं है। हमारे पास एक मामला है। एक हत्या। और अपराध स्थल से हमें एक वस्तु मिली है।"

"तो?"

"यह भोजपत्र का एक टुकड़ा है। बहुत पुराना। और उस पर एक प्राचीन लिपि में कुछ लिखा है। हमारी भाषाविज्ञान की टीम इसे पहचान नहीं पा रही है। लेकिन जब हमने इस तरह की दुर्लभ लिपियों के विशेषज्ञों की खोज की, तो आपका नाम सामने आया। आपके एक पुराने शोध पत्र के संदर्भ में।"

विक्रम का दिल एक पल के लिए रुक गया। भोजपत्र। प्राचीन लिपि। हत्या। उसके दिमाग में वे सभी तस्वीरें घूमने लगीं जो उसने अपने शोध के दौरान देखी थीं, वे सभी विवरण जो उसने अपने सिद्धांत में लिखे थे। नहीं, यह संभव नहीं हो सकता। वह केवल एक संयोग था।

"मैं अब उस काम में शामिल नहीं हूँ," उसने अपनी आवाज़ को स्थिर रखने की कोशिश करते हुए कहा।

"श्रीमान राठौड़," अंजलि की आवाज़ में अब एक हताशा थी, "यह एक बहुत ही संवेदनशील मामला है। एक बहुत ही हाई-प्रोफाइल हत्या। हम पर दबाव है। हमें यह जानना होगा कि उस भोजपत्र पर क्या लिखा है।"

विक्रम चुप रहा। उसका दिमाग दौड़ रहा था। एक तरफ उसका शांत, सुरक्षित निर्वासन था। दूसरी तरफ एक दरवाज़ा था, एक ऐसा दरवाज़ा जो उसे वापस उसी दुनिया में ले जा सकता था जिसने उसे नष्ट कर दिया था। यह एक मौका था। यह साबित करने का एक मौका कि वह सही था। लेकिन यह एक जाल भी था। अगर वह गलत हुआ, तो वह फिर से उपहास का पात्र बनेगा। और अगर वह सही हुआ...तो इसका मतलब था कि उसकी सबसे भयानक कल्पनाएं सच थीं। इसका मतलब था कि "वंश" केवल किताबों में मौजूद एक सिद्धांत नहीं था, बल्कि एक जीवित, साँस लेती हुई हकीकत थी जो अब मुंबई की सड़कों पर खून बहा रही थी।

"मैं आपकी मदद क्यों करूँ?" उसने धीरे से पूछा। "उस सिस्टम की मदद क्यों करूँ जिसने मुझे बाहर फेंक दिया?"

"शायद इसलिए क्योंकि एक और जान दांव पर हो सकती है," अंजलि ने सीधे जवाब दिया। "उस भोजपत्र पर जो भी लिखा है, वह हत्यारे का संदेश हो सकता है। यह एक सुराग हो सकता है। यदि आप इसे पढ़ सकते हैं, तो शायद हम किसी और को मरने से बचा सकते हैं।"

यह तर्क उसे चुभ गया। अपनी सारी कड़वाहट के बावजूद, विक्रम एक बुरा इंसान नहीं था। वह दुनिया से अलग-थलग हो गया था, लेकिन उसकी अंतरात्मा अभी मरी नहीं थी। और एक अकादमिक के रूप में, एक पहेली का आकर्षण, एक अनसुलझे रहस्य का खिंचाव, बहुत मजबूत था।

उसने अपनी किताबों के ढेर को देखा। वे उसके दोस्त थे, उसके साथी थे। लेकिन वे उसे जवाब नहीं दे सकते थे। जवाब मुंबई में था। जवाब उस भोजपत्र के टुकड़े में छिपा था।

उसने एक गहरी साँस ली, पाँच साल की धूल और निराशा को बाहर निकालते हुए।

"ठीक है," उसने कहा, और उसकी अपनी ही आवाज़ उसे अजीब लगी, जैसे किसी और ने बोली हो। "मैं आऊँगा। मुझे विवरण भेजिए।"

फोन कट गया। कमरे में फिर से सन्नाटा छा गया। लेकिन यह अब शांत सन्नाटा नहीं था। यह एक प्रतीक्षारत सन्नाटा था, एक ऐसा सन्नाटा जो तूफान के आने से पहले होता है। विक्रम सिंह राठौड़, अपमानित नबी, अपने रेगिस्तान से बाहर निकल रहा था। उसे पता नहीं था कि आगे क्या है, लेकिन एक बात वह जानता था: उसका शांत, नीरस जीवन समाप्त हो गया था।

और शायद, बहुत गहराई में, वह इसी का इंतज़ार कर रहा था।






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