गरुड़ की शपथ
गरुड़ की शपथ
हिमालय की बर्फीली चोटियों के नीचे, कश्यप के पवित्र आश्रम में, प्रतिशोध और छुटकारे की एक कहानी शुरू होती है। कद्रू, धरती से बंधी और महत्वाकांक्षी, अपनी कोमल बहन विनता के साथ सूर्य के रथ में दिव्य घोड़े उच्छैःश्रवास की पूँछ के रंग पर शर्त लगाती है। अपने अजन्मे नागों से इसे काला कर, कद्रू का छल विनता को हज़ार साल तक नागों के क्रूर शासन में दासता में डाल देता है। विनता का पहला पुत्र, अरुण, उसकी अधीरता से अपूर्ण जन्म लेता है, लेकिन दूसरा, गरुड़, एक सुनहरा सूर्य गरुड़ बनकर उभरता है, जिसकी शक्ति देवलोक को हिला देती है। अपनी माँ की दुर्दशा जानकर, गरुड़ एक शपथ लेता है जो उसकी नियति को परिभाषित करेगा: उसकी बेड़ियाँ तोड़ना, चाहे कीमत कुछ भी हो।
नाग, कद्रू के हज़ार विषैले पुत्र, देवताओं के संरक्षित क्षेत्र से अमृत की माँग करते हैं—एक असंभव कार्य जो उसे कुचलने के लिए बनाया गया है। गरुड़ की शपथ उसे आकाश में ले जाती है, जहाँ वह अग्नि की ज्वालाओं, वायु की आँधियों और इंद्र के वज्र का सामना करता है।
"गरुड़ की शपथ" भारतीय पौराणिक कथा को महाकाव्य फंतासी और आध्यात्मिक गहराई के साथ बुनती है। यह पुत्र भक्ति, धर्म की विजय और ब्रह्मांड के नाज़ुक संतुलन की खोज करती है। दुख से भरे आश्रम से स्वर्ग की सुनहरी ऊँचाइयों तक, गरुड़ की शपथ न्याय और बलिदान की किंवदंती बन जाती है, उसके पंख नागों के छिपे जहर के खिलाफ आशा का प्रतीक बनते हैं।
Buy on Amazon - https://www.amazon.in/dp/B0F49GJL4Y
Sample Chapters :
अध्याय 1: दो
बहनें, एक ऋषि
जहाँ
देवभूमि हिमालय की धवल चोटियाँ आकाश से बातें करती थीं, और जहाँ पवित्र गंगा की धारा
अपने शैशव काल में कलकल करती बहती थी, उन्हीं दुर्गम परन्तु दिव्य उपत्यकाओं के बीच
स्थित था प्रजापति कश्यप का तपोवन। यह कोई साधारण आश्रम नहीं था; यह सृष्टि के स्पंदन
का एक केंद्र था, एक ऐसा स्थान जहाँ प्रकृति अपने सबसे शुद्ध और शक्तिशाली रूप में
विद्यमान थी। यहाँ के देवदारु गगन को छूने की आकांक्षा रखते थे, उनके पत्तों पर सूर्य
की किरणें रत्नों सी चमकती थीं। ब्रह्मकमल और अन्य दुर्लभ पुष्प यहाँ बिना किसी प्रयास
के खिलते थे, उनकी सुगंध मीलों तक वायु को पवित्र करती थी। हिरण और सिंह एक ही घाट
पर निर्भय होकर पानी पीते थे, और पक्षियों का कलरव किसी दिव्य संगीत समारोह का आभास
कराता था। इस तपोवन की शांति केवल बाहरी नहीं थी, यह एक गहन आध्यात्मिक ऊर्जा से परिपूर्ण
थी, जो यहाँ निवास करने वाले महान ऋषि के तप और ज्ञान का प्रतिबिंब थी।
वे
ऋषि थे महर्षि कश्यप – ब्रह्मा के मानस पुत्र मरीचि के वंशज, सप्तर्षियों में से एक,
देवों, असुरों, गंधर्वों, नागों और अनेकानेक अन्य प्रजातियों के जनक। वे प्रायः आश्रम
के मध्य स्थित अपनी कुटिया के बाहर, एक विशाल वटवृक्ष की छाया में, पद्मासन लगाए गहन
समाधि में लीन रहते। उनका मुखमंडल शांत, परन्तु एक असीम तेज से परिपूर्ण था। जब वे
ध्यान में होते, तो पूरा तपोवन जैसे उनके साथ ही ध्यानमग्न हो जाता, वायु थम सी जाती,
जीव-जंतु निःशब्द हो जाते। और जब वे समाधि से बाहर आते, तो उनकी उपस्थिति मात्र से
वातावरण में एक नई ऊर्जा, एक नया संतुलन स्थापित हो जाता। वे कम बोलते थे, परन्तु उनकी
दृष्टि में ब्रह्मांड के रहस्य और करुणा का सागर लहराता था। वे सृजन के कर्ता थे, परन्तु
उससे उतने ही निर्लिप्त भी थे, अपने असंख्य पुत्र-पुत्रियों के भाग्य को तटस्थ भाव
से देखते हुए, धर्म और संतुलन के विधान को सर्वोपरि मानते हुए।
इसी महान ऋषि की छत्रछाया में, उनकी अनेक
पत्नियों के मध्य, दो बहनें भी निवास करती थीं, जो अपनी दिव्यता और अपने परस्पर विरोधी
स्वभाव के कारण विशेष थीं – कद्रू और विनता। दोनों ही प्रजापति दक्ष की पुत्रियाँ थीं,
सौंदर्य और गुणों से सम्पन्न, परन्तु उनकी आत्माओं का संगीत भिन्न तारों पर बजता था।
वे एक ही पति की सेवा में रत थीं, एक ही आश्रम के नियमों का पालन करती थीं, परन्तु
उनके हृदयों में पल रही महत्वाकांक्षाएं और इच्छाएं उन्हें अलग-अलग दिशाओं में ले जाने
को आतुर थीं। उनके बीच एक प्रतिद्वंद्विता थी – गहरी, शांत, परन्तु उतनी ही तीव्र जितनी
किसी नदी की सतह के नीचे बहती हुई धारा।
विनता, छोटी बहन, चाँद की शीतल किरणों सी
शांत और सौम्य थी। उसका वर्ण तपाये हुए स्वर्ण जैसा था, और उसके बड़े-बड़े नेत्रों
में एक सहज विश्वास और सरलता झलकती थी। उसकी गति में हंसिनी सी चाल थी, और उसकी वाणी
कोयल सी मीठी। प्रकृति से उसका गहरा नाता था; जब वह आश्रम के पुष्प उद्यानों में घूमती,
तो तितलियाँ उसके चारों ओर मंडराने लगतीं, और जब वह आकाश की ओर देखती, तो उसकी आँखों
में उड़ते हुए पक्षियों के लिए एक विशेष स्नेह उमड़ पड़ता। वह अत्यंत श्रद्धालु और
पतिव्रता थी। महर्षि कश्यप की सेवा ही उसके जीवन का ध्येय था। वह उनके ध्यान के लिए
आसन बिछाती, उनके यज्ञ के लिए समिधा एकत्रित करती, उनके भोजन का प्रबंध करती – सब कुछ
अत्यंत प्रेम और निश्छलता से। उसके होंठों पर सदैव एक हल्की, मधुर मुस्कान रहती थी।
परन्तु उस मुस्कान के पीछे, उसके हृदय के किसी कोने में, एक गहरी अभिलाषा भी पल रही
थी – वह चाहती थी कि महर्षि कश्यप उसे ऐसे पुत्रों का वरदान दें जो आकाश के समान विशाल
हों, जिनमें गरुड़ जैसी असीम शक्ति और गति हो, जो धर्म के ध्वजवाहक बनें। यह इच्छा
उसके शांत स्वभाव के कारण अव्यक्त थी, वह इसे प्रार्थनाओं में फुसफुसाती, पर कभी मुखर
न होती। अपनी बड़ी बहन कद्रू के प्रति उसके मन में आदर और स्नेह था, परन्तु कद्रू की
तीक्ष्ण बुद्धि और कभी-कभी प्रकट होने वाली महत्वाकांक्षा उसे थोड़ा भयभीत भी करती
थी। वह कद्रू की जटिलताओं को समझ नहीं पाती थी और अक्सर उसकी बातों पर सहज विश्वास
कर लेती थी।
इसके विपरीत, कद्रू का व्यक्तित्व सूर्य
की प्रखर किरणों जैसा था – तेजस्वी, तीव्र और महत्वाकांक्षी। वह बड़ी बहन थी, और इसका
उसे अहसास भी था। उसका वर्ण गहरा था, पर उसमें एक अजीब सा आकर्षण था। उसकी आँखें लंबी
और तीक्ष्ण थीं, जिनमें बुद्धिमत्ता के साथ-साथ एक रहस्यमयी गहराई भी थी, जैसे गहरे
जल में छिपे हुए रत्न। उसकी चाल में एक आत्मविश्वास और अधिकार का भाव था। वह अत्यंत
कुशल और व्यवहारिक थी। आश्रम के प्रबंधन कार्यों में उसकी गहरी रुचि थी, और वह हर कार्य
को योजनाबद्ध तरीके से करती थी। महर्षि कश्यप की सेवा वह भी पूरी निष्ठा से करती थी,
परन्तु उसकी सेवा में समर्पण के साथ-साथ अपनी योग्यता सिद्ध करने और ऋषि का विशेष अनुग्रह
प्राप्त करने की एक सूक्ष्म परन्तु प्रबल इच्छा भी झलकती थी। वह जानती थी कि वह दक्ष
प्रजापति की पुत्री है, और अपने पिता के समान ही वह भी शक्ति और प्रभाव चाहती थी। उसकी
सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा थी सहस्त्रों पुत्रों की माँ बनना – ऐसे पुत्र जो संख्या में
असंख्य हों, शक्ति में अद्वितीय हों, जो पृथ्वी के गर्भ में, पाताल लोक में अपना साम्राज्य
स्थापित करें, और जिनका नाम लेने मात्र से शत्रु कांप उठें। वह विनता से स्नेह का प्रदर्शन
तो करती थी, परन्तु मन ही मन उसकी सरलता और शांति को उसकी कमजोरी मानती थी। उसे लगता
था कि विनता की यही सरलता उसे पीछे रखेगी। कभी-कभी, जब दोनों बहनें साथ होतीं, कद्रू
की बातों में व्यंग्य की एक महीन धार होती, या प्रशंसा के शब्दों में भी तुलना का भाव
छिपा होता, जिसे केवल अत्यंत सजग मन ही पकड़ सकता था। विनता अक्सर इसे समझ नहीं पाती
या अनदेखा कर देती, परन्तु कद्रू के मन में प्रतिस्पर्धा की अग्नि धीरे-धीरे सुलग रही
थी।
एक दिन, जब दोनों बहनें आश्रम के सरोवर
के किनारे बैठी पुष्पों की माला गूंथ रही थीं, कद्रू ने कहा, "विनता, तुम कितनी
भाग्यशाली हो। तुम्हारा मन कितना शांत रहता है, तुम्हें किसी बात की चिंता ही नहीं।"
विनता ने मुस्कुराते हुए कहा, "चिंता
क्यों करूँ दीदी? महर्षि का आशीर्वाद है, यह सुंदर तपोवन है, और आपका स्नेह है।"
कद्रू के होंठों पर एक क्षणिक, रहस्यमयी
मुस्कान आई। "हाँ, स्नेह तो है ही... पर क्या तुम्हें कभी यह विचार नहीं आता कि
हमारी भी संतानें हों? ऋषि तो सृष्टि के जनक हैं, पर हमारे आँगन अभी सूने हैं। मुझे
तो सहस्त्रों पुत्रों की कामना है, जो नागों की तरह शक्तिशाली हों।" उसने सहजता
से अपनी महत्वाकांक्षा प्रकट कर दी।
विनता का चेहरा थोड़ा गंभीर हो गया।
"हाँ दीदी, संतान की इच्छा तो मुझे भी है। पर सहस्त्रों नहीं... बस दो... पर ऐसे
जो सूर्य और वायु के समान तेजस्वी हों, जो आकाश पर राज करें।" अनजाने में ही सही,
विनता ने भी अपनी गहरी इच्छा व्यक्त कर दी थी, और उसकी इच्छा कद्रू की इच्छा से टकरा
रही थी।
कद्रू ने माला गूंथना रोक दिया और विनता
की ओर देखा। उसकी आँखों में क्षण भर के लिए वही प्रतिस्पर्धा की चमक उभरी। "आकाश
पर राज? तुम्हारी इच्छाएं भी तुम्हारी तरह ही ऊंची हैं, विनता।" उसकी आवाज़ में
व्यंग्य था, पर उसने उसे तुरंत छुपा लिया। "देखते हैं, महर्षि पहले किसकी प्रार्थना
सुनते हैं।"
यह छोटी सी बातचीत, सरोवर के शांत जल और
खिले हुए पुष्पों के बीच, उन दो बहनों के बीच पनप रही प्रतिद्वंद्विता का स्पष्ट संकेत
थी। उनकी इच्छाएं भिन्न थीं, उनके स्वभाव भिन्न थे, और उनका भाग्य भी भिन्न दिशाओं
में जाने वाला था। वे दोनों एक ही पुरुष की पत्नियाँ थीं, एक ही छत के नीचे रहती थीं,
परन्तु उनके हृदय अलग-अलग महत्वाकांक्षाओं से धड़क रहे थे। और नियति चुपचाप अपना जाल
बुन रही थी, एक ऐसी शर्त के लिए, एक ऐसे छल के लिए, जो इन दो बहनों के जीवन को, और
आने वाले युगों को, सदा के लिए बदल देने वाला था। तपोवन की शांति के नीचे, एक तूफान
आकार ले रहा था।
अध्याय 2: दिव्य अश्व और विनाशकारी शर्त
महर्षि कश्यप से वरदान प्राप्त होने के
बाद कुछ समय व्यतीत हुआ। दोनों ही बहनों, कद्रू और विनता, ने गर्भ धारण कर लिया था
और पौराणिक विधान अनुसार अंडों को जन्म भी दे दिया था – विनता ने दो अत्यंत तेजस्वी
अंडे, और कद्रू ने एक सहस्त्र अंडे, जिन्हें आश्रम के एक सुरक्षित, ऊष्मा प्रदान करने
वाले कक्ष में अत्यंत सावधानी से रखा गया था। इस घटना ने दोनों बहनों के बीच की अदृश्य
प्रतिद्वंद्विता को और हवा दे दी थी। कद्रू अपने सहस्त्र पुत्रों की संख्या पर गर्व
करती, तो विनता को अपने दो पुत्रों के अद्वितीय तेज और पराक्रम के वरदान पर विश्वास
था। उनकी बातचीत में अब एक अतिरिक्त धार आ गई थी, यद्यपि वह बाहरी शिष्टाचार के आवरण
में लिपटी रहती थी। कद्रू की आँखों में अधीरता स्पष्ट झलकती थी, वह शीघ्र ही अपने शक्तिशाली
नाग पुत्रों को देखना चाहती थी, जबकि विनता धैर्यपूर्वक अपने अंडों की सेवा में लगी
रहती, उसके हृदय में आशा और विश्वास का सागर लहराता था।
एक शांत दोपहर में, जब सूर्य आकाश के मध्य
में था और तपोवन के प्राणी विश्राम कर रहे थे, कद्रू और विनता आश्रम से कुछ दूर, शायद
उस स्थान के निकट जहाँ क्षीर सागर की ऊर्जा का प्रभाव अधिक महसूस होता था, विचरण कर
रही थीं। वे अपने भविष्य के पुत्रों और आश्रम के कार्यों के बारे में सामान्य बातें
कर रही थीं, परन्तु कद्रू के मन में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने और विनता पर किसी प्रकार
का नियंत्रण पाने की इच्छा बलवती हो रही थी। उसे विनता का शांत आत्मविश्वास और उसके
दो 'अति यशस्वी' पुत्रों का वरदान निरंतर खटकता था। वह एक अवसर की तलाश में थी।
तभी, जैसे नियति ने ही कद्रू के मन की बात
सुन ली हो, समुद्र की दिशा से एक अद्भुत दृश्य प्रकट हुआ। पहले एक तीव्र श्वेत प्रकाश
दिखा, और फिर उस प्रकाश के बीच से प्रकट हुआ एक अश्व – परन्तु ऐसा अश्व जिसे देखकर
शब्द मौन हो जाएं और दृष्टि ठहर जाए! वह देवराज इंद्र का प्रिय वाहन, उच्चैःश्रवा था,
जो समुद्र मंथन से उत्पन्न चौदह रत्नों में से एक था। उसका वर्ण सहस्त्रों शरद पूर्णिमा
के चंद्रमाओं से भी अधिक श्वेत और कांतिमय था, उसकी देह सुगठित और दिव्य ऊर्जा से स्पंदित
थी। उसके लंबे, लहराते हुए अयाल चांदी के तारों जैसे लग रहे थे, और उसकी पूंछ घनी,
बर्फ सी सफेद और रेशम सी मुलायम थी। उसकी गति वायु को लज्जित करती थी, और उसके खुर
जैसे पृथ्वी का स्पर्श ही नहीं करते थे। वह उस स्थान पर आकर रुका और शांत भाव से आसपास
की दिव्य वनस्पतियों को चरने लगा। उसकी उपस्थिति मात्र से वह स्थान और अधिक पवित्र
और प्रकाशमान हो गया।
विनता की आँखें विस्मय और प्रशंसा से फैल
गईं। वह अपनी सुध-बुध खोकर उस दिव्य अश्व को निहारने लगी। "अहा! कितना अद्भुत!
कितना तेजस्वी!" वह स्वतः ही बोल उठी। "दीदी, देखो तो! ऐसा सौंदर्य... ऐसी
दिव्यता... यह निश्चय ही स्वयं देवराज इंद्र का उच्चैःश्रवा है!" उसकी आवाज़ में
बाल सुलभ उत्साह और सच्ची श्रद्धा थी।
कद्रू ने भी अश्व को देखा। उसने भी उसकी
सुंदरता को स्वीकार किया, परन्तु उसके चतुर मस्तिष्क ने तुरंत एक अवसर भाँप लिया। विनता
की मुग्ध अवस्था और सहज विश्वास को देखकर, उसके मन में वही पुरानी ईर्ष्या और नियंत्रण
पाने की इच्छा जाग उठी। उसने अपनी आँखों को सिकोड़ा, अश्व की पूंछ को ध्यान से देखा
– वह निर्विवाद रूप से श्वेत थी। परन्तु कद्रू के मन में एक कुटिल योजना आकार ले चुकी
थी।
वह विनता के निकट आई और उसके कंधे पर हाथ
रखते हुए बोली, "हाँ विनता, तुम सत्य कहती हो। अश्व तो अद्वितीय है। पूर्णतः श्वेत...
लगभग।" उसने अंतिम शब्द पर रहस्यमय ढंग से जोर दिया।
विनता ने चौंककर कद्रू की ओर देखा।
"लगभग? लगभग क्यों दीदी? यह तो पूरी तरह श्वेत है, देखो न!"
कद्रू ने अपनी आँखों को और सिकोड़ते हुए,
जैसे बहुत ध्यान से देख रही हो, कहा, "शरीर तो श्वेत है, परन्तु उसकी पूंछ...
ज़रा ध्यान से देखो, विनता। मुझे तो उसकी पूंछ के अंत में कुछ काले बाल दिखाई दे रहे
हैं।" उसने यह बात इतने आत्मविश्वास और सहजता से कही कि एक क्षण के लिए विनता
को भी भ्रम हो गया।
विनता ने अपनी पूरी एकाग्रता से अश्व की
पूंछ को फिर से देखा। वह ऊपर से नीचे तक, हर कोण से श्वेत ही थी। "काले बाल? कहाँ
दीदी?" उसने ईमानदारी से पूछा। "मुझे तो एक भी काला बाल नहीं दिख रहा। पूंछ
तो शरीर से भी अधिक श्वेत लग रही है।"
कद्रू हँसी, एक ऐसी हँसी जिसमें श्रेष्ठता
का भाव था। "तुम्हारी दृष्टि शायद थोड़ी कमजोर है, छोटी बहन, या शायद तुम इस दिव्य
तेज से चौंधिया गई हो। मुझे स्पष्ट दिख रहा है कि पूंछ का अंतिम सिरा काला है।"
"नहीं दीदी, मैं निश्चित हूँ,"
विनता ने थोड़ा दृढ़ता से कहा, उसे अपनी आँखों पर पूरा विश्वास था। "पूंछ पूरी
तरह श्वेत है।"
"अच्छा? इतना विश्वास?" कद्रू
ने चुनौती भरे लहजे में कहा, परन्तु उसकी आवाज़ में अब भी एक बनावटी मिठास थी।
"तो फिर चलो, अपनी-अपनी दृष्टि की परीक्षा हो जाए। हम शर्त लगाते हैं।"
"शर्त?" विनता थोड़ी झिझकी। वह
शर्त आदि में विश्वास नहीं रखती थी।
"हाँ, शर्त!" कद्रू ने उत्साहित
होते हुए कहा, जैसे यह कोई मनोरंजक खेल हो। "हम दोनों में से जिसकी बात गलत निकलेगी,
वह जीतने वाली की दासी बन जाएगी। सदा के लिए। बोलो, स्वीकार है? यदि तुम्हें अपनी दृष्टि
पर इतना ही विश्वास है, तो तुम्हें डरने की क्या आवश्यकता?" उसने बड़ी चतुराई
से इसे विनता के आत्मविश्वास और सत्यनिष्ठा से जोड़ दिया।
दासता! सदा के लिए! यह शर्त भयानक थी। परन्तु
विनता अपने सरल स्वभाव और सत्य पर अटूट विश्वास के कारण कद्रू के जाल में फंस गई। उसे
लगा कि कद्रू या तो गलती कर रही है या परिहास। उसे अपनी आँखों पर इतना विश्वास था कि
उसे लगा कि उसकी जीत निश्चित है, और वह अपनी बड़ी बहन को कभी दासी नहीं बनाएगी। उसने
सोचा, 'मैं शर्त जीत जाऊंगी और फिर दीदी को उनकी गलती का अहसास करा दूंगी।' उसने कद्रू
की आँखों में छिपी कुटिलता को नहीं देखा, न ही उसके शब्दों के गहरे अर्थ को समझा।
"ठीक है दीदी," विनता ने सहजता
से कहा। "मुझे आपकी शर्त स्वीकार है। कल प्रातः हम दोनों साथ आकर देखेंगे, और
सत्य का निर्णय हो जाएगा।"
कद्रू की आँखों में एक क्षण के लिए विजय
की क्रूर चमक उभरी, जिसे उसने तुरंत अपनी बनावटी मुस्कान के पीछे छिपा लिया।
"बहुत अच्छे, विनता! तो कल प्रातः यहीं मिलते हैं।"
दोनों बहनें वापस आश्रम की ओर लौट पड़ीं।
विनता निश्चिंत थी, अपनी जीत के प्रति आश्वस्त। कद्रू भी बाहरी तौर पर शांत थी, परन्तु
उसका मस्तिष्क तेजी से काम कर रहा था। उसने शर्त लगा दी थी, और अब उसे यह सुनिश्चित
करना था कि कल सुबह उच्चैःश्रवा की वह बर्फ सी सफेद पूंछ काली ही दिखाई दे। उसके पास
सहस्त्रों पुत्र थे, भले ही वे अभी अंडों में थे, परन्तु उनकी सम्मिलित शक्ति शायद
उसके काम आ सकती थी। रात्रि के अंधकार में एक षड्यंत्र का जन्म हो चुका था, एक ऐसा
षड्यंत्र जो न केवल विनता के जीवन को, बल्कि आने वाले युगों के इतिहास को भी बदलने
वाला था।
Comments
Post a Comment