गजराज-विजय: मगध से यवन तक: जब दो साम्राज्य टकराए, और हाथियों ने इतिहास का रुख मोड़ दिया।

 


गजराज-विजय: मगध से यवन तक

ईसा पूर्व चौथी शताब्दी। विश्व विजेता सिकंदर की मृत्यु ने प्राचीन जगत को सत्ता संघर्ष और अनिश्चितता की आग में झोंक दिया था। इसी उथल-पुथल के बीच, भारतवर्ष में, एक युवा और तेजस्वी योद्धा, चंद्रगुप्त, अपने महाज्ञानी गुरु आचार्य चाणक्य के मार्गदर्शन में, अत्याचारी नंद वंश के कुशासन को समाप्त कर एक अखंड और न्यायप्रिय मौर्य साम्राज्य की स्थापना का संकल्प ले रहा था।

परन्तु पश्चिम में, सिकंदर का एक और महत्वाकांक्षी सेनापति, सेल्यूकस निकेटर, अपने लिए एक विशाल हेलेनिस्टिक साम्राज्य का निर्माण कर रहा था। उसकी गिद्ध दृष्टि सिकंदर द्वारा विजित भारत के समृद्ध पूर्वी प्रदेशों पर भी टिकी थी।

नियति इन दो महाशक्तियों को सिंधु नदी के तट पर ले आई। एक ओर थी चंद्रगुप्त की विशाल भारतीय सेना, जिसमें दुर्जेय गजसेना भी शामिल थी, और दूसरी ओर थी सेल्यूकस की अनुभवी यूनानी और मैसेडोनियन फालान्क्स। उनके बीच हुआ संघर्ष केवल शस्त्रों का नहीं, बल्कि बुद्धिमत्ता, कूटनीति और सहनशक्ति का भी महासंग्राम था। आचार्य चाणक्य की अद्भुत रणनीतियों और चंद्रगुप्त के अदम्य शौर्य के समक्ष यवनों को अंततः घुटने टेकने पड़े।

"गजराज-विजय: मगध से यवन तक" केवल युद्ध और विजय की कहानी नहीं है। यह उस ऐतिहासिक सिंधु संधि का भी विस्तृत चित्रण है, जिसने दो साम्राज्यों के बीच शत्रुता को समाप्त कर शांति और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक नया अध्याय प्रारंभ किया। यह यवन राजकुमारी हेलेनिका के एक नई संस्कृति में आत्मसातीकरण, मेगस्थनीज जैसे राजदूतों द्वारा भारत के अद्भुत समाज के अवलोकन, और भारतीय युद्ध हाथियों की उस अप्रत्याशित भूमिका की भी गाथा है, जिन्होंने सुदूर पश्चिम में इप्सस के युद्ध में सेल्यूकस को निर्णायक विजय दिलाई।

शौर्य और बलिदान, कूटनीति और षड्यंत्र, प्रेम और घृणा, युद्ध और शांति – इन सभी मानवीय भावनाओं और ऐतिहासिक घटनाओं से बुनी यह महाकाव्यात्मक कथा आपको उस प्राचीन युग में ले जाएगी जब भारत विश्व की एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा था, और जब हाथियों ने न केवल साम्राज्यों का भाग्य तय किया, बल्कि दो महान सभ्यताओं को भी एक दूसरे के निकट ला दिया।


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Sample Chapters : 


अध्याय १: सिकंदरी शून्य और दो चिंगारियाँ

फरात की लहरें उस रात मद्धम थीं। बेबीलोन के महान जिग्गुरात की परछाईं शहर पर एक रहस्यमयी आवरण डाले हुए थी। कुछ पहर पूर्व तक जहाँ उत्सव और विजय के नाद गूँजते थे, आज वहाँ एक अप्राकृतिक, दमघोंटू शांति व्याप्त थी। सिकंदर, 'महान' सिकंदर, जिसने अपनी तलवार की नोक पर आधी ज्ञात दुनिया को झुका दिया था, अब अनंत निद्रा में लीन था। एक ऐसा कड़वा सत्य, जिसे स्वीकार करने का साहस उसके किसी भी महापराक्रमी सेनानायक में नहीं था, फिर भी यह उनके हृदयों पर एक भारी शिला सा रखा था, उनकी श्वासों को बोझिल बना रहा था।

सिकंदर की मृत्यु ने न केवल एक व्यक्ति का अंत किया था, बल्कि एक युग का समापन भी कर दिया था। उसने एक ऐसा विशाल साम्राज्य पीछे छोड़ा था, जो विभिन्न संस्कृतियों, जातियों और महत्वाकांक्षाओं का एक जटिल जाल था। अब, जब उस जाल को थामने वाला लौह हस्त शांत हो चुका था, तो प्रत्येक धागा अपनी दिशा में खिंचने को आतुर था। बेबीलोन के भव्य राजप्रासाद के विशाल सभाकक्ष में, जहाँ कभी सिकंदर की सिंहगर्जना गूँजती थी, आज उसके प्रमुख सेनानायक एकत्रित थे। उनके चेहरे पर शोक की छाया के साथ-साथ एक अपरिभाषित प्रत्याशा और गहरी आशंका भी स्पष्ट थी। पर्डीक्कास, जिसे सिकंदर ने अपनी शाही अंगूठी सौंपी थी, स्वयं को स्वाभाविक रूप से साम्राज्य का संरक्षक मान रहा था। उसकी मुद्रा में अधिकार का दम्भ तो था, पर उसकी आँखों की गहराई में छिपी चिंता यह दर्शा रही थी कि वह स्वयं इस विराट उत्तरदायित्व के बोझ को समझ रहा था।

कक्ष के दूसरे कोनों में, अन्य महाबली सेनापतिटॉलेमी, जिसकी दृष्टि मिस्र की उर्वरा भूमि पर थी; एंटीगोनस, एक आँख वाला अनुभवी योद्धा, जिसकी महत्वाकांक्षाएँ किसी से छिपी नहीं थीं; लाइसिसिमैकस, थ्रेस का शासक बनने का स्वप्न देखने वालासभी भविष्य की योजनाओं में डूबे थे। उनके बीच फुसफुसाहटें थीं, गुप्त संकेत थे, और एक दूसरे के प्रति गहरा अविश्वास। प्रत्येक व्यक्ति जानता था कि यह शांति क्षणिक थी। सिकंदर की चिता की राख ठंडी भी नहीं हुई थी, और उसके साम्राज्य के गिद्ध पहले ही शव पर मंडराने लगे थे।

इसी तनावपूर्ण और अनिश्चित वातावरण में, एक अपेक्षाकृत युवा, किन्तु युद्धों में तपा हुआ मैसेडोनियन कुलीन, सेल्यूकस, एक स्तंभ के सहारे चुपचाप खड़ा था। उसकी नीली, भेदक आँखें सभाकक्ष में हो रही प्रत्येक गतिविधि का बारीकी से अवलोकन कर रही थीं। वह सामान्यतः मितभाषी था, युद्ध के मैदान में उसकी तलवार बोलती थी, परिषद में नहीं। परन्तु उसकी चुप्पी में भी एक असाधारण गंभीरता और गणनात्मकता थी। कुछ ही देर पहले, बेबीलोन के स्थानीय सरदारों और मैसेडोनियन सैनिकों के एक दल के बीच वेतन और सुविधाओं को लेकर एक तीखा विवाद उठ खड़ा हुआ था। कुछ अतिउत्साही युवा सेनापतियों ने तत्काल बल प्रयोग और विद्रोहियों को कुचल देने का सुझाव दिया था। तब सेल्यूकस ने, अपनी शांत किन्तु दृढ़ आवाज में, पर्डीक्कास को संबोधित करते हुए कहा था, "महासेनानी, अनुशासनहीनता निस्संदेह दंडनीय है। परन्तु यह भी स्मरण रखना होगा कि हम एक विजित, किन्तु गौरवान्वित भूमि पर हैं। इन स्थानीय सरदारों की निष्ठा हमारे साम्राज्य की नींव के लिए महत्वपूर्ण है। बल के साथ यदि विवेक और न्याय का प्रदर्शन किया जाए, तो निष्ठा स्थायी होती है।"

पर्डीक्कास ने उस समय उसकी बात पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया था, किन्तु जब बाद में स्थिति और बिगड़ने लगी, तो उसे सेल्यूकस के शब्दों का स्मरण हो आया। उसने कुछ रियायतें देकर और स्थानीय नेताओं से संवाद स्थापित कर मामले को शांत किया। उस घटना ने, यद्यपि वह छोटी थी, सेल्यूकस की दूरदर्शिता और प्रशासनिक समझ का परिचय दिया था। वह केवल एक योद्धा नहीं था, बल्कि एक कुशल रणनीतिकार भी था, जो जानता था कि साम्राज्य केवल तलवार के बल पर नहीं, बल्कि मस्तिष्क के प्रयोग से भी शासित होते हैं। उसकी महत्वाकांक्षाएँ अभी उसके हृदय के किसी गुप्त कोने में सुरक्षित थीं, वे उस विराट शून्य को भरने के लिए सही अवसर की प्रतीक्षा कर रही थीं, जो सिकंदर की मृत्यु से उत्पन्न हुआ था। वह जानता था कि यह शून्य अनेक संघर्षों को जन्म देगा, और उन्हीं संघर्षों के गर्भ से नए साम्राज्यों का उदय होगा।

 

जिस समय बेबीलोन सत्ता के इस अस्थिर ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा था, और सिकंदर के सेनानायक भविष्य की बिसात पर अपनी चालें चल रहे थे, लगभग ढाई हजार कोस पूर्व, आर्यावर्त की पावन भूमि पर, एक और प्राचीन और शक्तिशाली साम्राज्य अपने ही अंतर्विरोधों के बोझ तले कराह रहा था। मगध का विशाल नंद साम्राज्य, जिसने कभी अपनी सैन्य शक्ति और अपार धन-संपदा से पड़ोसी राज्यों को भयभीत कर रखा था, अब अपने सम्राट धनानंद की विलासिता, अहंकार और प्रजापीड़क नीतियों के कारण भीतर से खोखला होता जा रहा था।

पाटलिपुत्र, गंगा और सोन नदियों के संगम पर स्थित वह भव्य राजधानी, जो कभी ज्ञान, कला और वाणिज्य का प्रमुख केंद्र थी, अब चाटुकारों, भ्रष्ट अमात्यों और भोग-विलास में डूबे राजकर्मचारियों का आश्रय स्थल बन चुकी थी। नगर की विशाल काष्ठ प्राचीरें और ऊँचे बुर्ज बाहर से जितने भव्य दिखते थे, उनके भीतर उतनी ही पीड़ा और असंतोष सुलग रहा था। सम्राट धनानंद, जिसे अपने पूर्वजों से एक विशाल और समृद्ध साम्राज्य विरासत में मिला था, प्रजा के कल्याण और राज्य की सुरक्षा के प्रति पूर्णतः उदासीन था। उसका अधिकांश समय मदिरा की मादकता, नर्तकियों के मोहक नृत्य और खुशामदी दरबारियों की झूठी प्रशंसा में व्यतीत होता था। करों का बोझ असहनीय हो चुका था, न्याय व्यवस्था चरमरा गई थी, और सीमावर्ती क्षेत्रों से विद्रोह और अशांति के समाचार प्रायः आते रहते थे, जिन्हें सम्राट अपने अहंकार में अनदेखा कर देता था।

एक ऐसे ही दिन, जब राजसभा संगीत और हास-परिहास में डूबी हुई थी, और धनानंद अपने प्रियतमाओं से घिरा हुआ किसी विदूषक के भोंडे मजाक पर अट्टहास कर रहा था, तक्षशिला का एक कृशकाय, परन्तु असाधारण रूप से तेजस्वी और स्वाभिमानी ब्राह्मण, विष्णुगुप्त चाणक्य, सभा में उपस्थित हुआ। चाणक्य केवल एक विद्वान ही नहीं थे, बल्कि एक प्रखर राष्ट्रवादी और दूरदर्शी चिंतक भी थे। वे मगध की वर्तमान दुर्दशा, सीमाओं पर यवनों की बढ़ती गतिविधियों और साम्राज्य के भीतर सुलगते असंतोष से अत्यधिक चिंतित थे। उनका हृदय राष्ट्रप्रेम की अग्नि में जल रहा था, और वे इसी उद्देश्य से सम्राट को सचेत करने और राजधर्म का स्मरण दिलाने पाटलिपुत्र आए थे।

उन्हें दरबार में उपस्थित होने का अवसर तो मिला, किन्तु जब उन्होंने विनम्रतापूर्वक किन्तु दृढ़ शब्दों में सम्राट के सम्मुख राज्य की वास्तविक स्थिति का चित्रण करना चाहा, तो धनानंद का अहंकार आहत हो गया। चाणक्य ने कहा, "महाराजधिराज, प्रजा का संतोष ही राज्य की वास्तविक शक्ति है। आपका कोष प्रजा के श्रम और समृद्धि से भरना चाहिए, न कि उनके आँसुओं और अभावों से। उत्तर-पश्चिमी सीमा पर यवनों का संकट मंडरा रहा है, और आंतरिक विद्रोह की चिंगारियाँ सुलग रही हैं। यह समय भोग-विलास का नहीं, अपितु राष्ट्रधर्म के पालन का है।"

धनानंद, जो अपनी आलोचना सुनने का अभ्यस्त नहीं था, और जिसे चाणक्य की सादगी और स्पष्टवादिता अपने ऐश्वर्य के प्रदर्शन के मध्य एक चुनौती सी लगी, क्रोध से उन्मत्त हो उठा। उसका मुख लाल हो गया, और वह अपने रत्नजड़ित सिंहासन से लगभग उछल पड़ा। "एक दरिद्र ब्राह्मण!" वह चीत्कार उठा, उसका स्वर घृणा और उपहास से भरा हुआ था। "एक भिक्षुक, जिसके पास पहनने को उत्तम वस्त्र तक नहीं, वह हमें राजधर्म का पाठ पढ़ाएगा? जिसकी अपनी कोई सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं, वह हमें साम्राज्य संचालन का परामर्श देगा? यह धृष्टता अक्षम्य है!" उसने अपने सैनिकों को आज्ञा दी, "इस वाचाल और अभिमानी ब्राह्मण को इसकी शिखा से पकड़कर घसीटते हुए इस सभा से बाहर निकाल दो! और वह आसन भी हटा दो, जिस पर यह अशुद्ध व्यक्ति बैठने का दुस्साहस कर रहा था!"

सैनिकों ने अविलम्ब आज्ञा का पालन किया। उन्होंने चाणक्य को उनकी खुली हुई शिखा से पकड़ा और बलपूर्वक उन्हें सभा से बाहर धकेल दिया। यह अपमान असहनीय था। चाणक्य, जो ज्ञान, तप और स्वाभिमान की प्रतिमूर्ति थे, इस सार्वजनिक तिरस्कार से भीतर तक आहत हो गए। उनकी शिखा, जो उनके ब्राह्मणत्व और उनके ज्ञान का प्रतीक थी, अब अपमानित होकर बिखर गई थी। सभा में उपस्थित अन्य दरबारी, जो धनानंद के क्रोध से भयभीत थे, मूकदर्शक बने रहे। कुछ के मन में चाणक्य के प्रति सहानुभूति थी, पर किसी में भी सम्राट के विरुद्ध बोलने का साहस नहीं था।

चाणक्य ने धूल में सने अपने वस्त्रों को झटकते हुए, अपनी बिखरी हुई शिखा को देखा। उनकी आँखों में अपमान की पीड़ा के साथ-साथ एक भयानक संकल्प की अग्नि धधक रही थी। उन्होंने ऊँचे स्वर में, जो पूरे सभाकक्ष में गूँज उठा, प्रतिज्ञा की, "अरे अधम नंद! तूने मेरा अपमान नहीं किया, तूने ज्ञान का, ब्राह्मणत्व का, और इस आर्यावर्त की प्राचीन मर्यादाओं का अपमान किया है! मैं, विष्णुगुप्त चाणक्य, आज इस भरी सभा में यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि जब तक तेरे इस कुटिल और अत्याचारी नंद वंश का समूल नाश करके, किसी योग्य, धर्मपरायण और राष्ट्रभक्त क्षत्रिय को मगध के इस पवित्र सिंहासन पर आसीन नहीं कर देता, तब तक मैं अपनी यह शिखा नहीं बांधूंगा! यह मेरी प्रतिज्ञा है, और यह होकर रहेगी!" उनका स्वर इतना दृढ़, इतना आत्मविश्वास से भरा और इतना भयावह था कि क्षण भर के लिए धनानंद का अट्टहास भी थम गया। उसके चेहरे पर पहली बार चिंता की एक हल्की सी रेखा उभरी, यद्यपि उसने तुरंत ही उसे अपने अहंकार के नीचे दबा दिया। चाणक्य अपमान और संकल्प की उस धधकती ज्वाला को अपने हृदय में लिए उस पतनशील दरबार से बाहर निकल गए। उनके पग दृढ़ थे, और उनकी दृष्टि भविष्य के उस अंधकार को चीर रही थी, जिसमें उन्हें अपने लक्ष्य का प्रकाश दिखाई दे रहा था।

 

पश्चिम में, जहाँ सिकंदर की मृत्यु ने एक राजनीतिक बवंडर खड़ा कर दिया था, सेल्यूकस की महत्वाकांक्षाओं को नए पंख लग रहे थे। डायडोची के बीच चल रहे सत्ता संघर्ष में उसने स्वयं को एक कुशल योद्धा और उससे भी अधिक चतुर रणनीतिकार सिद्ध किया था। बेबीलोन पर अपना नियंत्रण सुदृढ़ करने के बाद, उसने अपनी सेना को पुनर्गठित किया और पूर्व की ओर अपने प्रभाव का विस्तार करना प्रारंभ किया। उसका पहला बड़ा सफल अभियान मीडिया के एक महत्वपूर्ण हिस्से पर अधिकार करना था, जहाँ उसने एक प्रतिद्वंद्वी क्षत्रप को एक छोटी किन्तु निर्णायक लड़ाई में पराजित किया। इस विजय ने न केवल उसके साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार किया, बल्कि उसे महत्वपूर्ण संसाधन भी प्रदान किए। उसकी सेना, जिसमें अनुभवी मैसेडोनियन और यूनानी सैनिक थे, उसके प्रति पूर्णतः निष्ठावान थी। उसकी प्रतिष्ठा अन्य हेलेनिस्टिक शासकों के मध्य तेजी से बढ़ रही थी। वह अब केवल एक सेनापति नहीं, बल्कि एक शक्तिशाली साम्राज्य का निर्माता बनने की राह पर था।

सिकंदर की भारत विजय की कहानियाँ उसके मन में अभी भी ताज़ा थीं। वह जानता था कि सिकंदर का सपना भारत को अपने साम्राज्य का अभिन्न अंग बनाना था, एक ऐसा सपना जो उसकी असामयिक मृत्यु के कारण अधूरा रह गया था। सेल्यूकस के हृदय में यह विचार धीरे-धीरे परन्तु दृढ़ता से घर कर रहा था कि शायद वही वह व्यक्ति है जिसे नियति ने सिकंदर के उस अधूरे कार्य को पूरा करने के लिए चुना है। भारत की अपार संपत्ति, उसके रहस्यमय रीति-रिवाज और उसकी विशाल भूमि उसे अपनी ओर आकर्षित कर रही थी। यद्यपि उसका तात्कालिक ध्यान अभी भी पश्चिमी एशिया और अपने प्रतिद्वंद्वी डायडोची पर केंद्रित था, परन्तु पूर्व की ओर, आर्यावर्त की ओर, उसकी महत्वाकांक्षी दृष्टि बार-बार घूम जाती थी। वह अभी भारत की आंतरिक राजनीतिक उथल-पुथल और चाणक्य के उदय से पूरी तरह अनभिज्ञ था, परन्तु नियति चुपचाप दो भिन्न दिशाओं से आने वाली इन दो प्रचंड शक्तियों के मिलन का मंच तैयार कर रही थी।

 

पाटलिपुत्र के अपमान के बाद, चाणक्य ने कुछ समय एकांतवास में बिताया। उनका प्रारंभिक क्रोध अब एक शांत, किन्तु अधिक भयावह, दृढ़ संकल्प में परिवर्तित हो चुका था। उन्होंने नंद साम्राज्य की शक्ति, उसकी कमजोरियों, उसके समर्थकों और उसके शत्रुओं का गहन विश्लेषण किया। उन्हें ज्ञात था कि धनानंद को उखाड़ फेंकना कोई सरल कार्य नहीं था। नंदों की सेना विशाल और सुसज्जित थी, उनका खजाना भरा हुआ था, और उनके गुप्तचर हर जगह फैले हुए थे। इस दानवी शक्ति का सामना करने के लिए उन्हें न केवल सैन्य बल, बल्कि असाधारण बुद्धिमत्ता, अटूट धैर्य और एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो नेतृत्व कर सके, जो प्रजा को प्रेरित कर सके, और जो उनके महान लक्ष्य के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने को तैयार हो।

अपनी कुटिया में, दीपक की टिमटिमाती लौ के प्रकाश में, चाणक्य ने अपनी प्रतिज्ञा को एक बार फिर दोहराया। उनकी आँखें भविष्य के उस अंधकार में किसी ध्रुवतारे की भांति किसी आशा की किरण को खोज रही थीं। वह जानते थे कि उन्हें एक ऐसा 'शस्त्र', एक ऐसा 'साधन' ढूंढना होगा जो उनके संकल्प को वास्तविकता में बदल सके। उनकी यह खोज उन्हें कहाँ ले जाएगी, यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा था, परन्तु उनका अटूट विश्वास और राष्ट्रप्रेम उन्हें इस कठिन मार्ग पर अकेले ही आगे बढ़ने की प्रेरणा दे रहा था।

इस प्रकार, सिकंदरी शून्य ने विश्व के दो छोरों पर दो असाधारण व्यक्तियों के हृदयों में दो भिन्न प्रकार की, परन्तु समान रूप से शक्तिशाली, चिंगारियाँ प्रज्वलित कर दी थीं। एक पश्चिम में अपने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार करने का स्वप्न देख रहा था, दूसरा पूर्व में एक अत्याचारी शासन का अंत कर एक नए, न्यायपूर्ण युग का सूत्रपात करने का संकल्प ले चुका था। फरात और गंगा की लहरें चुपचाप बहती रहीं, इस बात से अनभिज्ञ कि उनके तटों पर पल रही ये दो चिंगारियाँ भविष्य में मिलकर एक ऐसी ज्वाला का रूप धारण करने वाली थीं, जो साम्राज्यों के भाग्य का निर्णय करेगी और इतिहास की धारा को एक नया मोड़ देगी।

 

अध्याय २: चाणक्य की खोज और चंद्रगुप्त का उदय

पाटलिपुत्र के राजदरबार से निष्कासित और अपमानित विष्णुगुप्त चाणक्य के हृदय में प्रतिशोध की अग्नि धधक रही थी। किन्तु यह अग्नि केवल व्यक्तिगत अपमान की नहीं थी, यह उस अन्याय, उस अधर्म के विरुद्ध थी, जो नंद सम्राट धनानंद के कुशासन में मगध की प्रजा को तिल-तिल कर जला रहा था। उनकी खुली शिखा, जो अब उनके संकल्प का प्रतीक बन चुकी थी, हवा में ऐसे लहराती मानो वह स्वयं नंद वंश के विनाश की पताका हो। चाणक्य ने पाटलिपुत्र की धूल अपने पैरों से झाड़ दी थी, पर मगध का भविष्य उनके चिंतन से दूर नहीं हुआ था। अब उनका एकमात्र लक्ष्य थाएक ऐसा व्यक्ति, एक ऐसा साधन खोजना, जो उनकी प्रतिज्ञा को पूर्ण कर सके, जो धनानंद के अत्याचारों से मगध को मुक्ति दिला सके और आर्यावर्त में एक न्यायपूर्ण, सुदृढ़ और संगठित साम्राज्य की स्थापना कर सके।

वे कई दिनों तक जंगलों, पहाड़ों और जनपदों में भटकते रहे। एक साधारण भिक्षुक का वेश धारण कर, वे आम लोगों के बीच घुलमिल जाते, उनकी बातें सुनते, उनके दुःख-दर्द को समझते। उन्होंने अपनी आँखों से देखा कि कैसे नंदों के कर अधिकारी प्रजा का रक्त चूस रहे थे, कैसे न्याय के नाम पर अन्याय हो रहा था, और कैसे लोग भय और निराशा में जी रहे थे। प्रत्येक पीड़ित चेहरे में उन्हें धनानंद का अट्टहास दिखाई देता, और प्रत्येक सिसकी उनके संकल्प को और दृढ़ करती जाती। वे विभिन्न छोटे राज्यों के शासकों से भी मिले, उनकी शक्ति और महत्वाकांक्षाओं का आकलन किया, परन्तु उनमें से कोई भी उन्हें नंदों जैसी विराट शक्ति को चुनौती देने योग्य नहीं लगा। कुछ कायर थे, कुछ स्वार्थी, और कुछ इतने अदूरदर्शी कि वे चाणक्य की विराट योजना को समझ ही नहीं पाते। चाणक्य जानते थे कि उन्हें किसी स्थापित शासक की नहीं, बल्कि एक ऐसे हीरे की तलाश थी, जिसे वे स्वयं तराश सकें, एक ऐसी कच्ची मिट्टी की, जिसे वे अपनी इच्छानुसार आकार दे सकें। उनके मस्तिष्क में एक आदर्श शासक की छवि स्पष्ट थीसाहसी, बुद्धिमान, न्यायप्रिय, और सबसे महत्वपूर्ण, राष्ट्र के प्रति समर्पित।

एक दिन, विंध्य के जंगलों के निकट, पिप्पलीवन नामक एक छोटे से गणराज्य की सीमा पर, चाणक्य एक वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे। उनकी दृष्टि कुछ बालकों के एक समूह पर पड़ी जो पास के मैदान में खेल रहे थे। वे "राजकीलम्" नामक एक लोकप्रिय खेल खेल रहे थे, जिसमें एक बालक राजा बनता था, और अन्य बालक उसके मंत्री, सेनापति और प्रजा। चाणक्य ने देखा कि एक विशेष बालक, जो आयु में लगभग चौदह-पंद्रह वर्ष का रहा होगा, राजा की भूमिका निभा रहा था। उसके चेहरे पर एक अद्भुत तेज था, उसकी आँखों में एक स्वाभाविक अधिकार और उसकी वाणी में एक दृढ़ता। वह अपने साथियों के बीच उत्पन्न हुए किसी विवाद का निपटारा बड़ी कुशलता और निष्पक्षता से कर रहा था। उसने एक झूठे आरोप में फँसाए गए एक निर्दोष बालक को न केवल बचाया, बल्कि वास्तविक दोषी को भी चतुराई से पकड़ लिया। चाणक्य उस बालक के नैसर्गिक नेतृत्व क्षमता, उसके साहस और उसकी न्यायप्रियता को देखकर चकित रह गए। उस बालक की मुद्रा में एक अद्भुत आत्मविश्वास था, जो किसी साधारण ग्रामीण बालक में दुर्लभ था।

चाणक्य धीरे से उठकर उस समूह के पास पहुँचे। बालकों का खेल रुक गया, वे उस तेजस्वी सन्यासी को कौतूहल से देखने लगे। चाणक्य ने उस राजा बने बालक से पूछा, "कुमार, तुम्हारा नाम क्या है?" बालक ने बिना किसी भय या संकोच के उत्तर दिया, "मेरा नाम चंद्र है, महात्मा। मेरे मित्र मुझे चंद्रगुप्त कहकर पुकारते हैं।" "चंद्रगुप्त," चाणक्य ने दोहराया, मानो इस नाम में उन्हें कोई विशेष ध्वनि सुनाई दी हो। "तुमने इस विवाद का निपटारा बड़ी बुद्धिमानी से किया। क्या तुम जानते हो कि एक राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य क्या होता है?" चंद्रगुप्त ने क्षण भर सोचा, फिर दृढ़ता से कहा, "प्रजा का कल्याण और न्याय की स्थापना, महात्मा। और अपने राज्य को बाहरी शत्रुओं से सुरक्षित रखना।" चाणक्य की आँखें चमक उठीं। यह उत्तर किसी साधारण बालक का नहीं हो सकता था। उन्होंने चंद्रगुप्त से कुछ और गूढ़ प्रश्न पूछेराजनीति, धर्म और मानव स्वभाव के बारे में। प्रत्येक प्रश्न का उत्तर चंद्रगुप्त ने अपनी आयु के हिसाब से आश्चर्यजनक परिपक्वता और स्पष्टता के साथ दिया। चाणक्य को विश्वास हो गया कि उनकी खोज पूरी हो चुकी थी। यही वह चिंगारी थी, जिसे वे एक प्रचण्ड ज्वाला में परिवर्तित कर सकते थे। यही वह हीरा था, जिसे तराशकर वे आर्यावर्त के भाग्य को बदल सकते थे। ऐसा प्रतीत होता था कि यह बालक मयूरपोषकों के एक साधारण परिवार से था, परन्तु उसकी रगों में निश्चय ही किसी वीर पूर्वज का रक्त प्रवाहित हो रहा था।

चाणक्य ने चंद्रगुप्त के माता-पिता से (या उसके संरक्षकों से, क्योंकि चंद्रगुप्त के प्रारंभिक जीवन के बारे में किंवदंतियाँ भिन्न हैं) भेंट की। उन्होंने उन्हें चंद्रगुप्त की असाधारण प्रतिभा और उसके उज्ज्वल भविष्य के बारे में बताया। प्रारंभ में कुछ हिचकिचाहट के बाद, वे चाणक्य के व्यक्तित्व और उनके ज्ञान से प्रभावित होकर चंद्रगुप्त को उनकी शिक्षा-दीक्षा के लिए सौंपने को तैयार हो गए।

इस प्रकार, चाणक्य चंद्रगुप्त को अपने साथ लेकर एक अज्ञात, सुरक्षित स्थान की ओर चल पड़े। यह स्थान शायद तक्षशिला के निकट कोई वनस्थली थी, या विंध्य की कोई एकांत गुफा। वहाँ चाणक्य ने चंद्रगुप्त को अपने संरक्षण में लिया और उसकी गहन शिक्षा प्रारम्भ की। यह केवल किताबी ज्ञान नहीं था। चाणक्य ने चंद्रगुप्त को राजनीति के दांव-पेंच, कूटनीति की बारीकियां, शत्रु को भ्रमित करने की कला, और विभिन्न प्रकार के शस्त्रों का संचालन सिखाया। उन्होंने उसे अर्थशास्त्र के गूढ़ सिद्धांतों से परिचित करायाकैसे एक राज्य को संगठित किया जाता है, कैसे कर प्रणाली चलाई जाती है, कैसे एक कुशल गुप्तचर तंत्र स्थापित किया जाता है, और कैसे एक न्यायपूर्ण परन्तु दृढ़ शासक बना जाता है। वे चंद्रगुप्त के समक्ष काल्पनिक राजनीतिक और सैन्य समस्याएँ प्रस्तुत करते और उससे उनके समाधान पूछते, जिससे उसकी तार्किक और विश्लेषणात्मक क्षमता का विकास होता। शारीरिक प्रशिक्षण भी कठोर थाघुड़सवारी, मल्लयुद्ध, और विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का अभ्यास। चाणक्य ने चंद्रगुप्त को विभिन्न भेष धारण करने, गुप्त संदेश भेजने और प्राप्त करने, और एक प्रभावशाली वक्ता बनने की कला में भी निपुण किया। चंद्रगुप्त एक असाधारण शिष्य सिद्ध हुआ। उसकी ग्रहण करने की क्षमता अद्भुत थी, और अपने गुरु के प्रति उसकी निष्ठा और समर्पण अटूट। धीरे-धीरे, चाणक्य के मार्गदर्शन में, वह एक साधारण ग्रामीण बालक से एक कुशल योद्धा, एक चतुर रणनीतिकार और एक भावी सम्राट के रूप में रूपांतरित होने लगा। गुरु और शिष्य के बीच एक गहरा, अटूट संबंध स्थापित हो गया, जो केवल ज्ञान के आदान-प्रदान तक सीमित नहीं था, बल्कि एक समान महान लक्ष्य के प्रति साझा समर्पण पर आधारित था।

 

ज्ञान और प्रशिक्षण के साथ-साथ, चाणक्य और चंद्रगुप्त ने गुप्त रूप से नंदों के विरुद्ध विद्रोह के लिए संसाधन और समर्थक जुटाना भी प्रारम्भ कर दिया। यह कार्य अत्यंत कठिन और जोखिम भरा था। नंदों के गुप्तचर सर्वत्र फैले हुए थे, और किसी भी संदिग्ध गतिविधि का परिणाम मृत्युदंड हो सकता था। चाणक्य ने अपने पुराने संपर्कों का उपयोग कियातक्षशिला और अन्य ज्ञान केन्द्रों के विद्वान, नंद शासन से असंतुष्ट कुछ व्यापारी, और कुछ पूर्व सैनिक जो धनानंद की नीतियों के कारण अपमानित या निष्कासित किए गए थे। चंद्रगुप्त ने अपनी युवावस्था और अपने स्वाभाविक करिश्मे का उपयोग कर कुछ साहसी और निष्ठावान युवाओं को अपने साथ जोड़ा। उन्होंने मिलकर एक छोटी, परन्तु समर्पित, गुप्त सेना की नींव रखी।

प्रारंभिक संसाधन जुटाना एक बड़ी चुनौती थी। चाणक्य ने अपनी बुद्धिमत्ता का प्रयोग करते हुए, धनानंद द्वारा अन्यायपूर्वक जब्त किए गए कुछ गुप्त खजानों का पता लगाया, जिन्हें विद्रोह के लिए उपयोग में लाया गया। कुछ देशभक्त व्यापारियों ने भी गुप्त रूप से उनकी आर्थिक सहायता की। हथियारों का संग्रह भी चुपके-चुपके किया गयाकुछ पुराने, परित्यक्त शस्त्रागारों से, कुछ सीमावर्ती जनजातियों से खरीदकर, और कुछ स्थानीय कारीगरों द्वारा गुप्त रूप से बनवाकर। इस छोटी सी विद्रोही सेना को अपरंपरागत युद्ध तकनीकों, जैसे छापामार युद्ध, घात लगाकर हमला करना, और दुश्मन की आपूर्ति लाइनों को बाधित करना, में विशेष रूप से प्रशिक्षित किया गया। चाणक्य जानते थे कि वे संख्या बल में नंदों की विशाल सेना का सामना सीधे तौर पर नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्हें अपनी बुद्धिमत्ता और अपनी सेना के लचीलेपन पर निर्भर रहना था।

उनका पहला बड़ा गुप्त अभियान नंदों के एक छोटे, परन्तु रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण, सीमांत दुर्ग पर अधिकार करना था। चंद्रगुप्त ने स्वयं इस साहसिक हमले का नेतृत्व किया। रात्रि के अंधकार में, उनके कुछ चुनिंदा सैनिक चुपके से दुर्ग की दीवारों पर चढ़ गए और प्रहरियों को निष्क्रिय कर दिया। फिर उन्होंने दुर्ग के द्वार खोल दिए, और चंद्रगुप्त की मुख्य सेना ने भीतर प्रवेश कर नंद सैनिकों को आश्चर्यचकित कर दिया। एक संक्षिप्त किन्तु भीषण संघर्ष के बाद, दुर्ग पर विद्रोहियों का अधिकार हो गया। इस सफलता ने न केवल उन्हें महत्वपूर्ण हथियार और रसद प्रदान की, बल्कि उनके सैनिकों का मनोबल भी आकाश तक पहुँचा दिया। यह नंद साम्राज्य के पतन की दिशा में पहला ठोस कदम था।

 

उधर पश्चिम में, जहाँ डायडोची के बीच सत्ता का संघर्ष अपने चरमोत्कर्ष पर था, सेल्यूकस निकेटर अपनी स्थिति को लगातार मजबूत कर रहा था। बेबीलोन, अपनी अपार संपत्ति और रणनीतिक स्थिति के कारण, अब उसके अभियानों का मुख्य केंद्र बन चुका था। उसने न केवल शहर की सुरक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ किया, बल्कि स्थानीय बेबीलोनियन, फारसी और यूनानी आबादी के बीच एक प्रकार का संतुलन और समन्वय स्थापित करने का भी प्रयास किया। उसने स्थानीय पुजारियों और अभिजात वर्ग को सम्मान दिया, उनकी परंपराओं का आदर किया, और उन्हें अपने प्रशासन में महत्वपूर्ण पद भी प्रदान किए। इससे बेबीलोन की प्रजा में उसके प्रति विश्वास और निष्ठा बढ़ी।

किन्तु उसका मार्ग निष्कंटक नहीं था। एंटिगोनस मोनोफथाल्मस, जो स्वयं को सिकंदर का वास्तविक उत्तराधिकारी मानता था, सेल्यूकस की बढ़ती शक्ति को ईर्ष्या और संदेह की दृष्टि से देखता था। उसने कई बार सेल्यूकस को अस्थिर करने के लिए गुप्तचर भेजे और बेबीलोन के आसपास के क्षेत्रों में विद्रोह भड़काने की कोशिश की। एक बार, एंटिगोनस के एक प्रमुख सेनापति ने बेबीलोन के निकट एक महत्वपूर्ण किले पर कब्जा करने का प्रयास किया, जो सेल्यूकस की आपूर्ति लाइनों के लिए खतरा बन सकता था। सेल्यूकस ने इस चुनौती का सामना असाधारण सैन्य कौशल और कूटनीतिक चतुराई से किया। उसने न केवल उस सेनापति को एक भयंकर युद्ध में पराजित किया, बल्कि उसके कुछ असंतुष्ट सैनिकों को अपनी ओर मिलाकर अपनी सेना को और मजबूत भी कर लिया। इस घटना ने डायडोची के बीच सेल्यूकस की प्रतिष्ठा को और बढ़ा दिया। वह अब केवल एक सफल सेनापति नहीं, बल्कि एक सक्षम शासक और एक दुर्जेय राजनीतिक खिलाड़ी के रूप में भी उभर रहा था। उसकी निगाहें अब पूर्व की ओर, फारस, बैक्ट्रिया और उससे भी आगे, भारत की सीमाओं की ओर अधिक दृढ़ता से टिकने लगी थीं। सिकंदर का अधूरा स्वप्न उसे निरंतर अपनी ओर खींच रहा था।

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